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________________ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन: पंच-समिति ११७ ईर्यासमिति की परिशुद्धि के चार कारण तथा विशेष यतना 'उत्तराध्ययनमूत्र' में ईर्वासमिति की परिशुद्धि के लिए चार कारण बताए हैं(१) आलम्बन, (२) काल, (३) मार्ग, और (४) यतना। ईर्यासमिति का आलम्बन ( गमनागमन करने का मूल उद्देश्य या आधार ) है - ज्ञान, दर्शन और चारित्र (इस रत्नत्रयरूप शुद्ध धर्म का पालन ) । काल से तात्पर्य है - गमनादि चर्या कव करनी चाहिए ? उसके लिए दिवस ही उपयुक्त बताया है, क्योंकि दिवस में सूर्य के प्रकाश में गमनादि चर्या करने से जीव-जन्तुओं की दया रक्षा हो सकती है, अपने संयम की भी सम्यक् आराधना हो सकती है। रात्रि में विचरण करना या कोई भी चर्या करना साधक के लिए निषिद्ध है। रात्रि में शारीरिक कारणवश बड़ीनीति, लघुनीति आदि का परिष्ठापन करना पड़े तो दिवस में देखी हुई ( प्रतिलेखित ) भूमि का प्रमार्जन करके गमन करे। मार्ग से उन्मार्ग को छोड़कर गमन करना उपयुक्त है; क्योंकि उन्मार्ग में चलने से काँटे, कंकर आदि चुभने, सर्प, बिच्छू, चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं पर पैर पड़ने से उनकी तथा अपनी एवं गड्ढे व उबड़-खाबड़ मार्ग में गमन से स्वयं की हानि विराधना होनी सम्भव है। यतना का वहाँ बहुत गहरा अर्थ है। सामान्यतया द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से यतना यहाँ चार प्रकार की कही गई है । द्रव्य से नेत्रों से सूर्यप्रकाश से गन्तव्य मार्ग को देखकर चले । क्षेत्र सेयुगप्रमाण (लगभग साढ़े तीन हाथ ) आगे की भूमि देखकर चले । काल से - दिन को देखे बिना और रात्रि को अनिवार्य कारणवश चलना पड़े तो पूँजे बिना न चले अथवा जब तक चलता रहे तब तक देखकर चले । और भाव से उपयोगपूर्वक गमन करे, अव्यवस्थित व्यग्रचित्त से गमन न करे। साथ ही गमन करते समय पंच - इन्द्रिय-विषयों, मन के विषय एवं वाचनादि पंचविध स्वाध्याय ( गपशप एवं अन्यान्य बातें करना) छोड़कर केवल गमन क्रिया में ही तन्मय होकर उसी को मुख्य से आगे करके (दृष्टिगत रखकर या महत्त्व देकर ) उपयोगपूर्वक ईर्या (गति) करे। क्योंकि इन्द्रिय और मन के विषयों एवं पंचविध स्वाध्याय आदि में उपयोग लगाने से मार्ग और गमन सम्बन्धी उपयोग नहीं रह सकेगा । ' रूप = पिछले पृष्ठ का शेष (ख) ईर्यापथशुद्धिः नानाविध-जीवस्थान-योन्याश्रयावबोधजनित-प्रयत्न-परिहृतजन्तु- पीडा ज्ञानादित्य-स्वेन्द्रिय-प्रकाश-निरीक्षित- देशगामिनी द्रुतविलम्बित सम्भ्रान्त-विस्मितलीलाविकार-दिगन्तरावलोकनादि-दोषविरहित गमना, तस्यां सत्यां संयमः प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ। - राजवार्तिक ९/५/३/५९४/१ तथा ९/६/१६/५९७/१३ = १. आलम्वणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य । चउकारण परिसुद्धं, संजए इरियं रीए ॥४ ॥ तत्थ आलंवणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वृत्ते मग्गे उप्पहवज्जिए ॥ ५ ॥
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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