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________________ @ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति & ११५ : सत्प्रवृत्तिरूप गुप्ति के समय समिति पाई जाती है, मगर केवल निवृत्तिरूप गुप्ति के समय समिति नहीं पाई जाती। इसी तथ्य का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने किया है-'प्रवीचाराऽप्रवीचाररूपा गुप्तयः, समितयः प्रवीचाररूपा एव।'' इन अष्ट प्रवचन माताओं को उत्तराध्ययनसूत्र में ‘आट समितियाँ' कहा गया है। समिति का सम्यक् प्रयोजन : प्रमादरहितता तथा प्राणिपीड़ापरिहार . 'मोक्षमार्ग-प्रकाश' में इसका रहस्य बताया गया है कि केवल परजीवों की रक्षा के लिए यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करना ही समिति नहीं है, अपितु दो प्रयोजनों को लेकर सच्चे माने में ‘समिति' होती है-एक तो गमन, भाषण आदि उन-उन प्रवृत्तियों को सम्यक् प्रकार से करने में भी राग, मोह, आसक्ति, घृणा, अरुचि आदि प्रमाद न हो; दूसरे, किसी या किन्हीं जीवों को दुःखित करना गमन-भाषणादि क्रिया का प्रयोजन न हो, इस अपेक्षा से दया का स्वतः पालन होगा। यही सच्चे माने में सर्वांगपूर्ण समिति होगी। पाँच समितियों का प्रयोजन, लाभ तथा संयमविशुद्धि ‘सर्वार्थसिद्धि' में बताया गया है कि इस प्रकार इन पाँच समितियों का प्रयोजन जीव-स्थानादिविधि को जानने वाले साधक द्वारा उन-उन प्राणियों की पीड़ा को दूर करना (अपने निमित्त से उन्हें पीड़ा न होने देना) है। 'भगवती आराधना' में समिति-पालन से लाभ बताया गया है कि “इन पाँच समितियों के पालन से संसार में रहता हुआ भी साधक पापकर्मों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार जल के स्नेहगुण से युक्त होने पर भी कमलपत्र जल से लिप्त नहीं होता।" 'सर्वार्थसिद्धि के अनुसार-“प्रवृत्ति करते समय असंयम रूप परिणामों के निमित्त से जो कर्मों का आस्रव होता है, समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधक के उक्त आम्रव (कर्मागमन) का निरोध रूप संवर हो जाता है।" ‘चारित्रपाहुड' के अनुसार ईर्या, भाषा आदि पाँचों समितियाँ संयम की विशुद्धि की कारण कही गई हैं। १. 'मोक्षमार्ग-प्रकाश /३३५/१0 से भावांश ग्रहण २. (क) ता एताः पंच-समितयो विदितीवस्थानादि-विधेर्मुनेः प्राणिपीडा-परिहाराभ्युपायावेदितव्याः । -सर्वार्थसिद्धि ९/५/४११/१० (ख) पउमणि-पत्तं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेह-गुणजुत्त। तह समीर्दाहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो॥ -भगवती आराधना १२0१ . (ग) प्रवर्तमानम्यासंयम-परिणाम-निमित्त-कर्मास्रवात् संवरो भवति। -स. सि. ९/५/४११/११ (घ) इरिया भासा एसणं जा सा आदाणं चेव निक्खेवो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदिओ। -चा. पा. मा. ३७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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