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________________ * संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय @ १०५ * हेतु ‘कायगुप्ति' बताई है। कायगुप्ति का अर्थ कायरक्षा के बदले काया पर संयम या नियंत्रण अधिक संगत है। कायगुप्ति कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे की जाए ? 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-खड़े हाने में, बैठने में, करवट लेने व लेटने में, चलने-फिरने व गर्त आदि के लाँघने में तथा इन्द्रियों के किसी भी प्रकार के प्रयोग में संरम्भ (हिंसा का संकल्प), समारम्भ (हिंसाजनक साधन जुटाने) तथा आरम्भ (हिंसा में प्रवृत्ति) में प्रवृत्त होती हुई काया को एकदम रोके-निवर्तन करे (यह कायगुप्ति है), यतनापूर्वक काय-प्रवृत्ति करनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि कायगुप्ति के साधक को काया से किसी को मारने-पीटने, सताने या पीड़ा देने का मन में प्लान नहीं बनाना चाहिए, न ही मारने आदि के लिए मुक्का तानने, लाठी आदि शस्त्र उठाने, लात मारने, प्रहार करने के लिए उद्यत होना चाहिए और न ही किसी प्राणी पर तलवार आदि शस्त्र चलाना चाहिए। इतना ही नहीं, शरीर की चेष्टाओं, चंचलताओं या प्रवृत्तियों को सर्वथा रोकने का अथवा यथाशक्य अनावश्यक, निरर्थक, निष्प्रयोजन, निरुद्देश्य कायचेष्टा या अशुभ व सावध कायचेष्टा नहीं करनी चाहिए, जिससे दूसरे जीवों की हिंसा, विराधना या पीड़ावृद्धि हो। कायगुप्ति के दो रूप : साधना की सफलता के लिए योगशास्त्र में कायगुप्ति के दो रूप बताये गए हैं-(१) उपसर्ग आदि विकट प्रसंगों के उपस्थित होने पर सर्वथा स्थिर होकर शरीरचेष्टा का त्याग करके कायोत्सर्ग करना; यह प्रथम कोटि की कायगुप्ति है। गजसुकुमाल मुनि एवं मैतार्य मुनि ने इसी कोटि की कायोत्सर्गमूलक कायगुप्ति अपनाई थी। (२) सोना, बैठना, उठना, पैर फैलाना आदि कायिक क्रियाओं, चंचलता या अविवेकपूर्ण चेष्टाओं अथवा अनावश्यक प्रवृत्तियों पर रोक लगाना; अर्थात् नियम व मर्यादा अनुसार शरीरचेष्टा करना; यह दूसरे प्रकार की कायगुप्ति है।२ १. (क) ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे। ___ उल्लंघण-पल्लंघणे, इंदियाण य मुंजणे॥२३॥ (ख) संरम्भ-समारम्भे आरंभम्मि तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु नियंतेज्ज जयं जई॥२४॥ ___ -उत्तराध्ययनसूत्र २४/२३-२४ २. (क) उपसर्ग-प्रसंगेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिर्निगद्यते ॥४३ ।। - शयनाऽसन-निक्षेपादान-चंक्रमणेषु च। स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु साऽपरा॥४४॥ -योगशास्त्र १/४३-४४ (ख) 'आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. २१० (ग) ज्ञानार्णव १८/१८ (घ) सिद्धसेनीया वृत्ति ९/४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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