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® १०४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
से भी जब शरीर के विषय में पूछा गया तो उन्होंने भी कहा-“गौतम ! आत्मा भी काय है और काय आत्मा से अन्य (भिन्न) भी है।"१ __तात्पर्य यह है कि शरीर का महत्त्व इसलिए है कि इसमें चैतन्यस्वरूप ज्ञानघन . आत्मा स्थित है, वह इसका स्वामी है। शरीर द्वारा किये गए प्रत्येक कार्य का वह जिम्मेदार है। 'काय' में 'कायी' (आत्मा) की उपस्थिति के कारण या चैतन्यदेव के निवास के कारण शरीर का महत्त्व है। शरीर द्वारा होने वाली प्रत्येक शुभाशुभ प्रवृत्ति का फल भोगने वाला भी आत्मा है, कर्मबन्ध करने वाला भी वह है और कर्मफल समभाव से भोगकर क्षय करने वाला तथा कर्मों से सर्वथा मुक्त होने वाला भी आत्मा है। अतः शरीर संयमीयात्रा का, जीवनयात्रा का साधन है, वह मंजिल नहीं, मार्ग है। इसलिए इस शरीर की रक्षा भी करनी है और इससे त्याग, तप, व्रत, प्रत्याख्यान, संवर, निर्जरा आदि की साधना भी करनी है और वह हो सकती है-कायगुप्ति के मार्ग द्वारा। __ परन्तु दूसरी ओर शरीर पर मोह, आसक्ति, राग आदि न कर बैठे, क्योंकि फिर वह शरीर संवर-निर्जरा धर्म की साधना के बदले प्रचुर अशुभ कर्म ही अधिक करेगा, पापानव की ओर ही अधिक झुकेगा। इसलिए भौतिक दृष्टि से इस शरीर को महत्त्वहीन बताते हुए कहा गया है
___“इमं सरीरं अणिच्चं असुइ-असुइ-संभवं।" -यह शरीर अनित्य है, नाशवान् है, यह स्वयं अशुचि (अपवित्र पदार्थों से युक्त) है और अशुचि से ही पैदा हुआ है।२ ।
इस प्रकार के अनित्य, अपवित्र शरीर (मानव-शरीर) पर त्याग, तप, वैराग्य, संयम, नियंत्रण रखकर संवर-निर्जरारूप धर्म या रत्नत्रयरूप धर्म का पालन करने १. (क) शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः। शरीरात् स्रवते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा॥
-स्थानांगसूत्र (ख) दशवैकालिकसूत्र चूर्णि (ग) सागरेण व णिज्जोको, आतुरो व तुरंगमे। भोयणं भिज्जएहिं वा, जाणेज्जा देहरक्खणं॥
-ऋषिभाषित ३५/५१ (घ) सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो॥ -उत्तराध्ययनसूत्र २३/७३ (ङ) (प्र.) आया भंते काए? अण्णे काए? । (उ.) गोयमा ! आया विकाए, अण्णे वि काए।
-भगवतीसूत्र (च) देखें-'आगममुक्ता' में शरीर की महत्ता के विषय में, पृ. २०८-२०९ २. (क) 'आगममुक्ता' (उपाध्याय केवल मुनि जी) से भावांश ग्रहण, पृ. २०७-२०८
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १९, गा. १३