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* संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय ॐ १०१
कब वचनगुप्ति, कब वचनगुप्ति नहीं? आचार्य भद्रबाहु ने 'दशवैकालिक नियुक्ति' में' वचनगुप्त-वचन-अगुप्त की मीमांसा करते हुए कहा है जिसे वचनमर्यादा का ज्ञान नहीं है या जो वचनकला में अकुशल है, वह कुछ भी न बोले, तब भी उसका न बोलना वचनगुप्ति नहीं है, किन्तु जो व्यक्ति वचनमर्यादा का जानकार है या वचनकला में कुशल है, वह दिनभर भाषण करता है, तब भी वचनगुप्ति का प्राप्त है।
वचनगुप्ति के चार प्रकार और उनसे संवर कब तथा कैसे? मनोगुप्ति की तरह वचनगुप्ति के भी चार प्रकार बताए गये हैं-(१) सत्या वचनगुप्ति. (२) असत्या वचनगुप्ति, (३) सत्यामृषा वचनगुप्ति, और (४) असत्यामृषा वचनगुप्ति। इन चारों का स्वरूप मनोगुप्ति की ही तरह है, अन्तर इतना ही है कि मनोगुप्ति में मन में उक्त-उक्त प्रकार का चिन्तन-मनन होता है, जबकि वचनगुप्ति में वचन से उक्त-उक्त प्रकार से बोलना होता है। वचनगुप्ति से संवर तभी हो सकता है-जब साधक अशुभ वचन में प्रवर्तमान वाणी (जिह्वेन्द्रिय) को अशुभ से शीघ्र हटाकर या रोककर शुद्ध या शुभ में प्रवृत्त करे या मौन करे। वचन से कर्कश, कठोर, हिंसाकारक, छेदन-भेदनकारक, आघातकारी, निश्चय भाषा सावध (पापजनक) भाषा, न बोले। जहाँ विवाद हो, कलह हो, वितण्डावाद हो, वहाँ साधक को मौन धारण करना ही श्रेयस्कर है। किसी को कटु, कर्कश, मर्मस्पर्शी एवं आघातजनक वचन न कहना भी वचनगुप्ति है। वह निन्दा-चुगली, विकथा, असत्य, दम्भ, छल-कपट आदि से दूर रहे। असत्य एवं मिश्र भाषा (जिसके दो या अनेक अर्थ निकलते हों) या जिस भाषा को दूसरा समझ न सके, ऐसी कलहकारक या निन्दाकारक भाषा से निवृत्त होना भी वाग्गुप्ति है।
वचनगुप्ति के लिए तीन प्रकार के वचनों से बचना, हटना वचनगुप्ति की साधना करने वाले को निम्नोक्त तीन अनिष्टों में बचने को प्रवृत्त होने से रोकना आवश्यक है-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ। संरम्भ वचनगुप्ति का अर्थ है-दूसरे का विनाश या अनिष्ट करने में समर्थ शब्दों को
१. वयण-विभत्ति-अकुसलो, वओगयं बहुविहं अयाणंतो।
जइ वि न भासइ किंचि, न चेव वयगुत्तयं पत्तो॥२९० ॥ वयण-विभत्ति-कसलो, वओगयं बहविहं वियाणंतो।
दिवस पि भासमाणो, तहा वि वयगुत्तयं पत्तो॥२९१॥ -दशवैकालिक नियुक्ति २९०-२९१ २. सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य।
चउत्थी असच्चमोसा य, वइगुत्ती चउव्विहा॥२२॥