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________________ १०० कर्मविज्ञान : भाग ६ पुण्य-पाप का मोक्षमार्ग के रूप में चिन्तन करना, दोनों के सम्बन्ध में मोक्षमार्ग निवृत्तिरूप संवर है। सत्यामृषा मनोगुप्ति का अर्थ है - सत् और असत् दोनों का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करना - किसी बगीचे में आम, दाड़िम, लीची, अमरूद आदि सभी फलों के वृक्ष हैं, किन्तु बहुतायत से आम होने से वह आम्रवन है, ऐसा चिन्तन करना। यह भी पूर्ण असत् से निवृत्त होने रूप संवर है । असत्यामृषा मनोगुप्ति का अर्थ है - जो चिन्तन सत्य भी न हो और असत्य भी न हो । जैसे - वह राजा अन्याय से हटकर न्याय में प्रवृत्त हो जाए, ऐसा आदेश -निर्देशात्मक निरवद्य चिन्तन मन में करना । ' वचनगुप्ति के दोनों रूपों की साधना संवर- निर्जरा की कारण मनोगुप्ति के बाद वचनगुप्ति की साधना में सफलता और उसके लाभ के विषय में विचार करना आवश्यक है। वैसे 'उत्तराध्ययनसूत्र' में वचनगुप्ति का लक्षण निवृत्तिपरक बताया गया है - आरम्भ आदि में वचन - प्रवृत्ति से निवृत्त होना वचनगुप्ति है । किन्तु 'आचारांगसूत्र' में इसके दोनों रूप मिलते हैं - ( १ ) भगवान ने सिद्धान्त में जैसा कहा है, तदनुसार प्ररूपणा (कथन) करना, अर्थात् शास्त्र - मर्यादा के अनुसार वचन बोलना, अथवा (२) वाणी-विषयक मौन साधना वचनगुप्ति है । संक्षेप में, “शास्त्रानुसार निर्दोष वचन प्रयोग भी वचनगुप्ति है और सर्वथा मौन धारण करना भी वचनगुप्ति है ।" 'नियमसार' में भी - ' असत्य भाषण नहीं करना' अथवा 'मौन धारण करना', ये दो रूप वचनगुप्ति के बताये हैं । 'योगशास्त्र' में आचार्य हेमचन्द्र ने वचनगुप्ति के दोनों स्वरूप मान्य किये हैं - ( १ ) आँख, भ्रू आदि के संकेत से रहित सर्वथा मौन रखना, तथा ( २ ) आगमानुकूल संयत, भाषा बोलना, इसे जैनदर्शन में वाग्गुप्ति कहा जाता है। 'आचारांगसूत्र' की टीका में शीलांकाचार्य ने मुनि के भाव को 'मौन' कहा है। उसका आशय यह है कि मुनि जहाँ आवश्यकता होती है, वहाँ विवेकपूर्वक संयत भाषा में बोलता है तथा आवश्यक न होने पर या दोषयुक्त वचन के विषय में सर्वथा मौन रखना है, यही मुनि का भाव वचनगुप्तियुक्त भाव है। अतः वचनगुप्ति के दोनों रूपों की साधना संवर- निर्जरा की कारण है। १. सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । ची असच्चमोसा मणगुत्ति चउव्विहा ॥ २. (क) संरम्भ-समारम्भे आरंभेय तहेव य । - उत्तराध्ययनसूत्र २४/२० -वही २४ / २३ मणं पवत्तमाणे तु नियंतेज्ज जयं जई ॥ (ख) से जहे तं भगवया पवेदितं आसुपण्णेण जाणया पासया, अदुवा गुत्ती वइगोयरस्स । - आचारांगसूत्र १/७/१/२० - नियमसार ६९ (ग) अलियादि - णियत्ती वा मोणं वा होई वदगुत्ती । (घ) संज्ञादि - परिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ (ङ) मुनेर्भावो मौनम् । - योगशास्त्र १ / ४२ - आचारांगसूत्र टीका २/६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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