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@ संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय * ९९ *
___ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति तीनों के साथ क्रमशः मन, वचन एवं काया की संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के रूप में तीन अवस्थाएँ हैं। उस-उस योग की तीन अवस्थायुक्त प्रवृत्ति से तीनों को रोकना ही तीन गुप्ति होती है।
__ संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ का लक्षण हिंसा आदि कार्यों के लिए प्रयत्न करने का संकल्प करना संरम्भ है, उसी संकल्प एवं कार्य की पूर्ति के लिए साधन जुटाना समारम्भ है और अन्त में उस संकल्प को कार्यरूप में परिणत कर देना आरम्भ है। हिंसा आदि कार्य की, संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसको प्रकट रूप में पूरा कर देने तक, जो तीन अवस्थाएँ हैं, वे क्रमशः संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ हैं।
___ मनोगुप्ति की सम्यक् साधना के लिए इस दृष्टि से मनोगप्ति की व्यवहार में सम्यक साधना हेतु मन को तीन प्रकार की अवस्थाओं में प्रवृत्त होने से बचाना आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि आत्त-रोद्रध्यान विषयक मन से अशुभ संकल्प करना संरम्भ है, जैसे-मैं ऐसा ध्यान करूँ, जिससे वह मर जाए इत्यादि। फिर पर-पीडाकारक उच्चाटनादि मंत्र से सम्बद्ध ध्यान के लिए उद्यत हो जाना समारम्भ है तथा मन से दूसरे के प्राणों को पीड़ा पहुँचाने वाले अशुभ ध्यान (संकल्प) में प्रवृत्त हो जाना। मनःसंवर या मनोगुप्ति के साधक को ऐसे अशुभ संकल्पत्रय में प्रवृत्त होने के विवाद तत्परता और प्रवृत्त होने में उद्यत मन को अशुभ से रोककर शुभ या शुद्ध चिन्तन में प्रवृत्त करे अथवा मन को निर्विकल्पता और निर्विचारता से अभ्यस्त करे।
मनोगुप्ति के चार प्रकार इसके अतिरिक्त 'उत्तराध्ययनसूत्र' में मनोगुप्ति आदि का विश्लेषण करते हुए उनके प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार बताकर उनकी साधना करने की पृथक्-पृथक् विधि भी प्रतिपादित की है। मनोगुप्ति चार प्रकार की है-सत्या मनोगुप्ति, असत्या मनोगुप्ति, सत्यामृषा मनोगुप्ति और असत्यामृषा मनोगुप्ति। सत्या मनोगुप्ति का अर्थ है-मन में सत्य (सत्) पदार्थ का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करना। जैसे-जगत् में जीव-तत्त्व है, इस प्रकार सत्य पदार्थ का चिन्तन करना। असत्य चिन्तन से निवृत्त होने से यह प्रथम मनोगुप्ति संवररूप होती है। असत्या मनोगुप्ति का अर्थ है-असत् पदार्थ का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करना। जैसे-पाप-पुण्य मोक्ष के मार्गरूप नहीं हैं। इसमें १. (क) श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २४१ (ख) संरंभ-समाराम्भे, आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियंत्तेन्ज जयं जई।
-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २४, गा. २१, पृ. ४१६-४१७