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________________ ॐ ९८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® मनोगुप्ति की साधना में सफलता के लिए तीन चिन्तन बिन्दु 'ज्ञानार्णव' में मनोगुप्ति की साधना में सफलता के लिए तीन चिन्तन बिन्दु दिये हैं-(१) राग-द्वेष पर अवलम्बित सभी संकल्पों को छोड़कर जो मन स्व (आत्मा) के अधीन करता है, (२) मन को समताभाव में स्थिर करता है, (३) सिद्धान्त की सूत्र रचना (जिनवाणी) पर चिन्तन-मनन में मन को सदा प्रेरित करता है, वही वास्तव में मनोगुप्ति में सफल होता है। मनोगुप्ति की साधना के दो मुख्य सोपान आगमों के मन्थन करने से मनोगुप्ति की साधना के दो मुख्य सोपान प्रतिफलित होते हैं-प्रथम सोपान है-मन को सतत शुभ विचारों में लीन रखना, पवित्र भावों में बाँधे रखना, राग-द्वेष से रंजित ज्ञान या चिन्तन से मन की रक्षा करना, स्वाध्याय, ध्यान, आत्म-चिन्तन, परमात्म नाम स्मरण, जप, स्तुतिपाठ आदि विषयों में मन को लगाये रखना, ताकि वह अशुभ चिन्तन-मनन से दूर रहे।२ । दूसरा सोपान है-मन को एक ही विषय पर स्थिर करना, जैसे कि आत्मा पर, शास्त्रवचन पर, शरीर पर, कर्म-विपाक (कर्मफल) पर, संसार (लोक) स्वरूप पर तथा बारह प्रकार की अनुप्रेक्षा, मैत्री आदि चार भावनाओं में से किसी एक पर अथवा अन्य किसी भी अवलम्बन को लेकर उसे एकाग्र करना। इस प्रकार की एकाग्रता से चित्त को ध्यान में तन्मय करके स्थिर कर लेने से अद्भुत आत्म-शक्ति जाग्रत हो जाती है। मनोगुप्ति से दो लाभ : एकाग्रता और विशुद्ध संयमाराधना __मनोगुप्ति की पूर्वोक्त सावधानियों और लक्षणों को ध्यान में रखकर साधना करने से क्या आध्यात्मिक लाभ होता है? इसके उत्तर में भगवान कहते हैंमनोगुप्ति का साक्षात् फल है-एकाग्रता। एकाग्रता सिद्ध कर लेने से साधक संयम की विशुद्ध निर्दोष आराधना कर सकता है। यह अनन्तर फल है। बिखरा हुआ मन शक्तिहीन रहता है, केन्द्रित मन शक्ति-पुँज बन जाता है। १. विहाय सर्व-संकल्पान् राग-द्वेषावलम्बितान्। स्वाधीनं कुरुते चेतः, समत्वे सुप्रतिष्ठितम्॥ सिद्धान्त-सूत्र-विन्यासे शाश्वत् प्रेरयतोऽथवा। भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिः मनीषिणः॥ -ज्ञानार्णव १८/१ २. आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. १९६ ३. आगममुक्ता' से भाव ग्रहण ४. (प्र.) मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? (उ.) मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ। एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, बोल ५५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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