________________
* संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय ॐ ९७ 8 विना मन-वचन-काया की स्वच्छंदताओं को रोकना ही क्रमशः गुप्तित्रय कहलाती है। .
गुप्तियों को क्रियान्वित करने के उपाय और लाभ इसके अतिरिक्त हमें शास्त्रों की आँखों से तीनों गुप्तियों को क्रियान्वित करने के उपायों और उनके आध्यात्मिक लाभ के विषय में अनुचिन्तन करना आवश्यक है।
मनोगुप्ति के दो रूपों से साधना में सरलता मनोगुप्ति के जैनाचार्यों ने दो रूप बताए हैं-एक है निषेधात्मक और दूसरा है विधेयात्मक। मन का स्वभाव गतिशील है, इसके विपरीत इसे एक विषय पर स्थिर एवं एकाग्र करना-स्थितिशीलता है। अतः मनोगुप्ति का पूर्ण अर्थ हुआ-अशुभ चिन्तन से मन को हटाकर शुभ चिन्तन में स्थिर करना, शुभ भावों में केन्द्रित एवं एकाग्र करना। इसे ही भगवान महावीर ने धर्मध्यान कहा है, जिसे गौतम स्वामी ने धर्मशिक्षा या धर्मज्ञान कहा है।
धर्मध्यान के चार अवलम्बनों पर मन की एकाग्रता धर्मध्यान के चार आलम्बन या पाये हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और लोकविचय। इनके तात्पर्यार्थ क्रमशः ये हैं-(१) जिनोपदिष्ट तत्त्व या धर्म पर चिन्तन, (२) मन के राग-द्वेष-मोह आदि अपायों (दोषों) से मुक्त होने का चिन्तन, (३) पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय के कारण शारीरिक वेदना, अनिष्ट संयोग आदि हैं, इस प्रकार पूर्वकृत कर्म का विपाक (फल) मानकर उसे समभाव से सहने तथा दूर रहने के उपायों का चिन्तन, (४) लोकस्थिति = संसारस्वरूप का चिन्तन।२
मनोगुप्ति के लिए तीन स्वरूपों का चिन्तन मनोगुप्ति के तीन स्वरूपों का उल्लेख योगशास्त्र में किया गया है(१) आर्त्त-गेद्रध्यानमूलक विचारों के जाल से मुक्त होना, (२) शास्त्रानुसार धर्मध्यान माध्यस्थ्यभाव एवं समत्व में सुस्थिर रहना, (३) कुशल-अकुशल सभी प्रकार की मनोवृत्ति का निरोध करके आत्म-भावों में रमण करना।३
१. “आगममुक्ता से भाव ग्रहण. पृ. १९४ २. आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यमप्रमत्तसंयतम्य। ३. विमुक्त-कल्पनाजालं. समत्वे सुप्रतिष्ठितम्।
आत्मारामं मनम्तज्जैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ।।
-तत्त्वार्थसूत्र ९/३७
-योगशास्त्र १/४१