SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ कर्मविज्ञान : भाग ६ बोलने या मारण- उच्चाटन आदि के साधक मंत्रादि उच्चारण करने का विचार करना, जैसे- - अमुक व्यक्ति मेरा दुश्मन है या जाति- कुलद्रोही है, विरोधी है, दूसरे सम्प्रदाय, प्रान्त या राष्ट्र का है, उसे मारने या उसका अनिष्ट करने में समर्थ शब्दों का मन में संयोजन करना। समारम्भ वचनगुप्ति है। उक्त अनिष्टकारक एवं संयोजित शब्दों का या पर- पीड़ाकारक मंत्रादि का उच्चारण करने के लिये उद्यत होना, स्वयं वैसा बीड़ा उठाना। आरम्भ वचनगुप्ति का अर्थ है - दूसरों को विनष्ट करने के कारणरूप मंत्रादि का जाप करना या उस प्रकार के अनिष्ट शब्दों का प्रयोग करना। वचनगुप्ति-साधक इन तीनों प्रकार के वचनों से अपनी जिह्वा को रोके तथा समय आने पर किसी जिज्ञासु को शास्त्र-वचन के यथार्थ अर्थ समझाए, अशुद्ध या अशुभ वचनों से रोके । शुद्ध मोक्षमार्ग का रहस्य विविध युक्तियों से समझाए। अशुभ विचार आते ही तत्काल उसे शुभ या शुद्ध वचन में प्रवृत्त करे । यही वचनगुप्ति का अशुभ निवृत्तिरूप संवर है । ' वचनगुप्ति से आध्यात्मिक लाभ वचनगुप्ति की पूर्वोक्त सावधानी और अप्रमादपूर्वक साधना से साधक को क्या लाभ है? इस सम्बन्ध में भगवान महावीर से पूछने पर उन्होंने कहा - वचनगुप्ति से जीव को निर्विकारता प्राप्त होती है। ऐसा निर्विकार जीव अध्यात्मयोग की साधना में जुटा रहता है, अध्यात्म - साधना में तल्लीन हो जाता है । निर्विकारता का अर्थ है - कषायों, राग-द्वेष-मोह-मद- मत्सर - काम - भय आदि विकारों पर वह विजय प्राप्त कर लेता है, उनके वश में नहीं होता, कषाय- नोकषायों के प्रवाह में नहीं बहता । विकारों से बुद्धि चंचल होती है । बुद्धि स्थिर रहती है तो मन भी शान्त रहता है। मन शान्त होता है तो आत्मा में प्रसन्नता और समाधि रहती है । समाधि होने पर तो आत्मा अध्यात्मध्यान में लगती है। इस प्रकार निर्विकारता के क्रमशः सभी फल वचनगुप्ति से प्राप्त होते हैं। २ कायगुप्ति क्या, क्यों और उसकी सफलता कैसे ? मनगुप्ति और वचनगुप्ति की साधना और उससे संवर-निर्जरा अर्जित करने का उपाय जान लेने के बाद कायगुप्ति की साधना की सफलता के विषय में जानना १. संरम्भ- समारम्भे आरम्भे य तहेव य । वयं पवत माणे तु नियंतेज्ज जयं जई ॥ २. ( प्र . ) वयगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? त्तराध्ययनसूत्र २४/२३ (उ.) वयगुत्तयाए णं जीवे निव्वियारं जणयइ । निव्वियारे णं जीवे वइगुत्ते अज्झप्प-जोगसाहणजुत्ते यावि विहरइ । - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, बोल ५४; 'आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. २०४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy