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________________ ८८ कर्मविज्ञान : भाग ६ परीष के निमित्त का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा। वे अपने उपादान परिष्कार के-आत्म-शुद्धि (कर्मक्षय) के भावों में दृढ़ रहे, आत्म-भावों में ही एकमात्र रमण' करते रहे। साधक की प्रज्ञा संवर - साधना के साथ-साथ निर्जरा पर भी टिके अतः अपरिपक्व साधक को पहले संवर - साधना में परिपक्व होने के साथ-साथ निर्जरा-साधना पर दृष्टि, प्रज्ञा या बुद्धि स्थिर करनी चाहिए। द्रव्यभाव-संवर-साधना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । कषायादि वृत्तियों, राग-द्वेष-मोह की परिणतियों के निमित्तों से दूर रहने हेतु उनका अप्रमत्तभाव से निरोध करना सर्वप्रथम अनिवार्य है। एक बार किसी आम्रव का एक क्षण के लिए निरोध कर लिया, इतने मात्र से संतोष नहीं मानना चाहिए । जहाँ-जहाँ आम्रव के स्रोत हैं, जो-जो आस्रवों के कारण हैं या विभिन्न प्रकार के आस्रव हैं, प्रति क्षण सावधान रहकर उनका निरोध करना एक दिन का, एक क्षण का काम नहीं है । संवर के विभिन्न पहलुओं, प्रकारों और साधनों को ध्यान में रखकर पूर्वोक्त आम्रवों का द्रव्य और भाव से निरोध करने से संवर की साधना का दृढ़ अभ्यास होगा। फिर तो उसकी आत्मा भी इतनी अभ्यस्त, परिपक्व और सुदृढ़ हो जाएगी कि कितने ही प्रतिकूल निमित्त मिलें, अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों का सामना करना पड़े, संवर के द्वारा पहले से शान्त-दान्त वृत्तियों को - कर्मों को क्षय करने की (निर्जरा) साधना उसके लिए सुगम हो जाएगी। परिपक्व-साधक संवर एवं निर्जरा दोनों को अपनाता है गजसुकुमाल मुनि के समक्ष कितना प्रतिकूल निमित्त था, परन्तु पूर्व-जन्म में की हुई संवर-साधना के कारण वे भावसंवर में दृढ़ रह सके, नये आने वाले अशुभ कर्मों पर एकदम ब्रेक लगा दिया और पुराने बँधे हुए कर्मों के उदय में आने पर घोर उपसर्ग को समभाव से सहन ( तितिक्षा) करने के कारण अनन्त-अनन्त कर्म-निर्जरा करके कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सके। इसी प्रकार अर्जुन मुनि भी अपने द्वारा पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों के कारण आने वाले कष्टों (परीषह-उपसर्गों) में अपनी उपादानस्वरूप आत्मा को ही दोषयुक्त मानकर उसी का परिष्कार करने हेतु भावसंवर- साधना में दृढ़ रहे, समभाव से उक्त कष्टों को सहकर कर्मों का क्षय किया और सिर्फ छह महीने में समस्त कर्मों का क्षय करके सदा-सदा के लिए कर्मों से मुक्त, सिद्ध-बुद्ध हो गए। अतः सम्यग्दृष्टि-साधक कभी संवर को और कभी निर्जरा को प्राथमिकता देता है, कभी दोनों की साधना साथ-साथ चलाता है।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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