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पहले कौन ? संवर या निर्जरा ३८७
क्षपक श्रेणी के प्रयोग में क्रमशः असंख्यगुणी निर्जरा इसे जैन - कर्मविज्ञान की भाषा में क्षपक श्रेणी का प्रयोग कहते हैं। इसमें निमित्तों को नहीं देखा जाता, निमित्त रहे या न रहे, इसका कतई विचार नहीं किया जाता। परिस्थितियाँ अनुकूल हों या प्रतिकूल उनका कोई प्रभाव साधक पर नहीं पड़ता और एकमात्र आत्म शुद्धि पर दृष्टि रहती है, निर्जरा और वीतरागता ही उसका एकमात्र लक्ष्य रहता है, किसी भी इहलौकिक या पारलौकिक स्वार्थसिद्धि या प्रसिद्धि, प्रशंसा, प्रतिष्ठा आदि की दृष्टि उसमें नहीं रहती, एकमात्र कषाय और राग-द्वेष का - मोहकर्म का क्षय करने की मुख्यता रहती है। एकमात्र उपादान को पकड़कर कर्म को आत्मा से पृथक् करने और आत्मा की शुद्धि करने का ही अभ्यास मुख्य होता है।
निष्कर्ष यह है कि मोहकर्म का क्षय करने के लिए छद्मस्थ (अपरिपक्व ) या अपूर्ण ज्ञानी सम्यग्दृष्टि एवं व्रती साधक को संवर का ही पहले अवलम्बन लेना आवश्यक है। उसे लिये बिना - संवर का अभ्यास, समिति, गुप्ति, दशविध क्षमादि धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह - विजय, चारित्र एवं तप-संयम के माध्यम से किये बिना मन-वचन-काया की शान्ति एवं समाधि का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता । स्वस्थ ही उसकी दृष्टि मोहकर्म का क्रमशः क्षय (निर्जरा) की ओर होनी चाहिए, ताकि वृत्तियों को सर्वथा क्षीण किया जा सके।
अपरिपक्व - साधक निर्जरा की भ्रान्ति में
कामविजेता स्थूलभद्र मुनिवर के गुरु भ्राता मुनि पहले संवर-साधना का पक्का अभ्यास किये बिना ही मेरी वृत्तियाँ सर्वथा उपशान्त हो गई हैं, इस भ्रान्ति में पड़कर उनकी देखादेखी कोशावेश्या के यहाँ पहुँच गए, परिणामस्वरूप वे कोशावेश्या के यहाँ कामवासना का उत्तेजक वातावरण मिलते ही फिसल गए। अगर वे परिपक्व होते, उपादान शुद्धि की सुदृढ़ साधना तक पहुँच गए होते तो शायद वे न फिसलते। उनके सामने कैसा भी वातावरण होता, कैसे भी प्रबल प्रतिकूल निमित्त होते, कितने ही अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों का सामना करना होता, वे नहीं डिगते ।
परिपक्व साधक की दृष्टि एवं लगन
यही कारण है कि कामविजेता स्थूलभद्र मुनि पहले संवर-साधना में पारंगत हो .गए थे और निर्जरा-साधना की ही एकमात्र लगन थी । उसके पीछे किसी प्रकार की इह-पारलौकिक कामना, प्रसिद्धि या प्रशंसा की तमन्ना नहीं थी । इसी कारण कोशावेश्या के वहाँ के कामोत्तेजक वातावरण का, कोशावेश्या जैसे अनुकूल