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________________ ॐ ८६ * कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ सुषुप्त रहते हैं, वे अभिव्यक्त नहीं होते। उपशमन की प्रक्रिया में अभिव्यक्ति का स्थल निष्क्रिय हो जाता है। निमित्तों को बदल देना या मन्द या समाप्त कर देना, परिस्थिति और मनःस्थिति को बदल देना, अभिव्यक्ति के केन्द्र को निष्क्रिय कर देना उपशमन की प्रक्रिया का चिह्न है। परिस्थिति बदल जाने से, अभिव्यक्ति का स्थान निष्क्रिय हो जाने से कषाय उपशान्त हो जाता है। कषाय-नोकषाय की वृत्ति शान्त हो जाने से वह बाहर में प्रगट नहीं हो पाती। जैसे बिजली का करेंट चालू होता है, परन्तु बल्ब फ्यूज हो जाने से प्रकाश नहीं होता, क्योंकि प्रकाश को अभिव्यक्त करने वाला साधन व्यर्थ हो गया है। किन्तु दूसरा सही बल्ब लगाने पर या फ्यूज को ठीक करने पर वह पुनः प्रकाश को अभिव्यक्त करने लगता है। साधक की दृष्टि उपादान तक पहुँचे __इसलिए यह बात संवर-निर्जरा-साधक को अवश्य ध्यान में रखनी है कि अभिव्यक्ति के केन्द्र को एक बार शान्त, निष्क्रिय और दमित कर देने मात्र से सम्यग्दृष्टि विचारशील-साधक को तत्काल संवर (पापासव-निरोध) का लाभ अवश्य मिलता है, किन्तु सदा के लिए उक्त पापासव तथा पापकर्मबन्ध का क्षय (निर्मूल) नहीं होने से निमित्त मिलते ही उसके पुनः अभिव्यक्त होने की संभावना है। मन में दुर्भावना आई। साधक ने तुरन्त जप, तप एवं स्वाध्याय प्रारम्भ किया। दुर्भावना पलायित हो गई। किन्तु जप या स्वाध्याय बन्द होने पर अज्ञात मन में पड़े हुए दुर्भावना के बीज निमित्त मिलते ही पुनः अंकुरित हो सकते हैं। अतः संवर-निर्जरा-साधक की दृष्टि उपशम पर ही न अटककर वह उपादान तक पहुँचनी चाहिए। जैसे रोग को एक बार दबा देने-शान्त कर देने के बाद परोपकारी वैद्य की दृष्टि रोग को जड़मूल से मिटा देने की रहती है। इसी प्रकार कर्म-रोग को केवल दबा देने या उपशान्त कर देने के बाद आत्मार्थी-साधक की दृष्टि अज्ञात मन में पड़े हुए कर्मसंस्कारों को-दोषों को क्षीण करने की प्रक्रिया अपनाने की दृष्टि रहनी चाहिए। कर्मों का निरोध करने की प्रक्रिया अपनाने मात्र से साधना की इतिश्री न समझकर, अज्ञात मन में सुषुप्त (सत्ता में) पड़े हुए कर्मों की उदीरणा करके अथवा बाह्याभ्यन्तर तप द्वारा, परीषह-उपसर्ग को समभाव से सहकर निर्जरा (कर्मक्षय) करनी चाहिए। आजकल धार्मिक क्षेत्र में बहुधा जो प्रयोग चल रहे हैं, वे उपशम के या शुभ योग-संवर के प्रयोग होते हैं। कषायादि वृत्तियों को शान्त कर देने, दबा देने के या निमित्तों को बदलने के प्रयोग ही प्रायः होते हैं। किन्तु इसके साथ ही होना चाहिएउक्त वृत्तियों को मिटाने या उपादान को परिष्कृत करने का प्रयोग।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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