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ॐ पहले कौन ? संवर या निर्जरा , ८५
संवर अन्ततोगत्वा- लाभदायक है ही, बशर्ते कि उसके साथ जागृति हो। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है
''अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो।
अप्पा दंतो सुही होई, अस्सिं लोए परत्थ य॥१ -अपकृत्य में प्रवृत्त होती हुई अपनी आत्मा (मन-बुद्धि आदि) का दमन (उपशमन) करना चाहिए, अपने आपका स्वेच्छा से दमन बहुत ही दुष्कर है। स्वेच्छा से अपने आप पर किये हुए दमन से व्यक्ति इस लोक में भी सुखी होता है, परलोक में भी। ___ सामाजिक जीवन में भी यही देखा जाता है, मनुष्य कितनी ही पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता है। कदाचित् वह उच्छृखल बनकर मर्यादा-भंग करना चाहता है या मोहवश कर बैठता है, तो उसके हितैषी जनों, गुरुजनों आदि के दबाव से वह पुनः नियंत्रण करके पूर्ववत् मर्यादा-पालन की पटरी पर आ जाता है। सम्यग्दृष्टि-साधक समझ जाता है कि स्वेच्छा से संयम-नियम और तप के द्वारा आत्म-दमन कर लेना मेरे लिए श्रेयस्कर है। अन्यथा सामाजिक या राष्ट्रीय कानून का भंग होने पर, उसका स्वेच्छा से प्रायश्चित्त करके शुद्धि न करने पर वध (मारपीट) आदि से या बंधनों (गिरफ्तारी, जेल) आदि से पूरा दण्ड देकर बरबस मेरा दमन किया जाएगा। यह तो राजसत्ता द्वारा दिया गया दण्ड है, कर्मसत्ता द्वारा दिया गया दण्ड भी उसे देर-सबेर भोगना पड़ता है।
सर्वसामान्य व्यक्तियों के लिए पहले संवर आवश्यक इसलिए संवर का प्रयोग आस्रव (नये आते हुए कर्म) को रोकने हेतु सर्वसामान्य व्यक्तियों के लिए आवश्यक है। ऐसा न करने से कई बार व्यक्ति नये आते हुए कर्मों और पुराने बँधे हुए कर्मों से निवृत्त होने में सर्वथा अक्षय होकर कर्मसत्ता के आगे घुटने टेक देता है।
आध्यात्मिक जगत् में दो दृष्टियाँ आध्यात्मिक जगत् में भी दो दृष्टियाँ प्रयुक्त होती हैं-(१) उपशमन की दृष्टि, और (२) क्षपण की दृष्टि। जिसे कर्मविज्ञान की भाषा में क्रमशः उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी कहा जाता है। उपशम श्रेणी में कषाय निर्मूल नहीं होते, वे शान्त,
१. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १, गा. १५ २. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य।
माऽहं परेहिं दमंतो बंधणेहिं वहेहिं य॥
-वही १/१६