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________________ * ८४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ अपने मन को जिधर चाहे, उधर दौड़ने दो"; क्या इस प्रकार काम-आस्रव को खुली छूट दे देने से मनुष्य निर्विकार बन जाएगा? कदापि नहीं। ऋषि-मुनियों का ठोस अनुभव है-आग में घी डालने से आग बुझेगी नहीं, वह उत्तरोत्तर अधिकाधिक भड़केगी। कई लोगों का यह कहना है कि सिनेमा, उपन्यास, उद्भट वेश, हाव-भाव आदि कामोत्तेजक निमित्तों पर एकदम प्रतिबन्ध लगा दिया जाए तो कामोत्तेजना पैदा ही न होगी। परन्तु अमुक निभित्तों पर प्रतिबन्ध लगाने पर दूसरे निमित्त पैदा हो जायेंगे। अतः मनुष्य की मूल वृत्ति-प्रवृत्ति पर प्रतिबन्ध और वह भी किसी निमित्त के द्वारा कामवासना को उत्तेजित करने या कामवासना भड़कने का प्रसंग मिलने की संभावना होने पर तत्काल ब्रेक (नियंत्रण) लगाने से ही कामवृत्तिनिरोधरूप संवर हो सकेगा। अन्यथा कलियुगी भगवानों के यहाँ खुली छट मन और इन्द्रियों को दिये जाने का अथवा बौद्ध मठों में भिक्षु-भिक्षुणियों को खुली छूट दिये जाने का दुष्परिणाम सर्वविदित है। यही कारण है कि परम महर्षि तीर्थंकरों ने दशविध ब्रह्मचर्य समाधि स्थान बताकर कामवृत्ति-निरोधात्मक संवर की दस गुप्तियाँ बताई हैं। ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ इसी कामवृत्ति-निरोधरूप संवर के लिए हैं। वृत्ति को सहसा दमित करने से क्या हानि, क्या लाभ ?... यह वस्तु अवश्य विचारणीय है कि किसी भी वृत्ति को दबाने या दमित करने पर एक बार तो वह दब जाएगी, परन्तु निमित्त मिलते ही पुनः उभर जाएगी, भड़क उठेगी। यह सच है कि किसी भी वासना, कामना या इच्छा का दमन करने पर वे दमित वासनाएँ-कामनाएँ अज्ञात मन में प्रविष्ट होकर दबी रह जाती हैं, किन्तु निमित्त मिलने पर दुगुने वेग से वे भड़कती हैं। परन्तु इसका समाधान यह है कि सोच-समझकर, अपनी भूमिका को देखकर, सम्यग्दृष्टि द्वारा अपने पर अपनी वृत्ति-प्रवृत्तियों पर स्वेच्छा से किया हुआ नियंत्रण सहसा नहीं भड़कता, चाहे कितने ही उद्दीपक या उत्तेजक निमित्त मिलें। एक बार अपना हानि-लाभ, हिताहित, कल्याण-अकल्याण, पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म भलीभाँति समझकर किसी वृत्ति-प्रवृत्ति पर किया हुआ नियंत्रण सुखकर एवं हितकर ही होता है, यदि मोहकर्मवश निमित्त मिलने पर यदि वह दमित, निरुद्ध या शमित वृत्ति-प्रवृत्ति पुनः भड़क भी उठती है, तो भी सम्यग्दृष्टि जीव या तो तुरन्त सँभल जाता है, अपनी उस दुर्बलता के लिए प्रायश्चित्त-पश्चात्ताप करता है, जिससे उक्त दोष का प्रमार्जन सहज ही हो जाता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा किया हुआ स्वैच्छिक शमन, दमन या निरोधरूप
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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