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________________ ॐ पहले कौन ? संवर या निर्जरा ॐ ८३ ॐ सर्वप्रथम काम का उपशमन आवश्यक है यह हुई निमित्तों को कामोत्तेजना पैदा करने वाले कारणों को दवाने या वैसा वातावरण बदलने की दृष्टि ! ब्रह्मचर्य की नौ बाड़े या नौ गुप्तियाँ वताई गई हैं, वे भी निमित्तों से बचकर काम के उफनते वेग को शान्त करने के लिए विहित की हैं। यद्यपि पूर्ण वीतरागता प्राप्त न हो जाए, तब तक कामराग का प्रादुर्भाव-तिरोभाव होता रहना सम्भव है। छद्मस्थ अवस्था में हर समय साधक में अप्रमत्त अवस्था नहीं रह पाती। वह अप्रमत्तता और प्रमत्तता दोनों के झूले में झूलता रहता है। इस अपेक्षा से मन में काम, क्रोध, लोभ आदि के उठते हुए तूफान को सर्वप्रथम सर्वथा नष्ट करना सम्भव नहीं होने से उसका उपशमन या स्वैच्छिक दमन करना ही यथोचित है। यदि सर्वप्रथम उसका दमन या उपशमन न करके केवल इसी भरोसे छोड़ दिया जाए कि आत्मा में अनन्त शक्ति है, अतः काम-क्रोधादि के वेग को सर्वथा मिटाना ही ठीक है। मेरी आत्मा पर उसका कोई असर नहीं हो सकता है अथवा मैं अपनी आत्मा को इतनी शुद्ध, निष्प्रकम्प, निश्चल, दृढ़ एवं पुष्ट बना लूंगा कि कामक्रोधादि मेरा कुछ नहीं कर सकेंगे या उनका आक्रमण विफल हो जाएगा। ऐसा सोचना किसी हिंस्र पशु का आक्रमण होने के अवसर पर आँखें मूंदकर स्वयं को सुरक्षित मान बैठने वाले खरगोश के समान ही भ्रान्तिमूलक या अज्ञानतासूचक हास्यास्पद होगा। ___ मान लो, उस समय मन में उठी हुई कामवासना पर तुरन्त ब्रेक नहीं लगाया जाता है, तो उस आस्रव का निरोध न होने और उसका सेवन करने की खुली छूट दे दी जाने पर संवर नहीं होगा, फलतः वह व्यक्ति असंयमपूर्वक बार-बार उस अपकृत्य को करेगा, जिससे वह कुसंस्कार अशुभ कर्म के रूप में बँध जायेगा, जिसका कटुफल देर-सबेर उसे भोगना पड़ेगा। ___ कामवृत्ति के कुसंस्कारवश बार-बार आवृत्ति होने से उस पापकर्म का भय मन में से निकल जाने पर व्यक्ति निःशंक और बेधड़क खुलेआम उस पापकर्म को करने लगेगा। सर्वप्रथम संवर न करने और एकदम निर्जरा कर लेने के भरोसे भ्रान्तिवश बैठे रहकर मनुष्य अपना कितना अहित, कितना आध्यात्मिक नुकसान कर बैठता है? इन्द्रियों को खुली छूट दे देने का दुष्परिणा आजकल के कलियुगी भगवान कहते हैं-"इन्द्रियों को खुली छूट दे दो, तुम्हारा मन जो चाहता है, उसे वैसा करने दो, उस पर पाबंदियाँ मत लगाओ; १. बंधइ पावयं कम्म, तं से होइ कडुयं फलं। -दशवैकालिकसूत्र, अ. ४, गा. १-६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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