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७० · कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उसके विपाक के रूप में बुद्धिभ्रष्टता, विवेकविकलता, मूर्छा या निद्रा आदि रूप फल प्राप्त होता है। खाये हुए आहार का पाचन न होने से असातावेदनीय का उदय होकर अजीर्ण, आमवात, ऊर्ध्ववात (गैस) आदि रोगों का अनुभाव (फलभोग) कराता है।
इस पर से यह स्पष्ट है कि कर्मों का विपाक किसी न किसी निमित्त से होता है। निमित्त के बिना विपाक हो नहीं सकता। यही कारण है कि प्रज्ञापना सूत्र में प्रत्येक कर्म के विपाकों का स्पष्ट निरूपण करके विपाकों के गति आदि पूर्वोक्त पांच निमित्त बताए हैं। जिसका हम पूर्वोक्त पंक्तियों में उल्लेख कर आये हैं। गोम्मटसार आदि कर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में विपाकों के मुख्यतया पांच निमित्त बताए हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। ये पांच बातें पूरी हों, तभी कर्म का 'विपाक हो सकता है, अन्यथा नहीं। __ प्रज्ञापनासूत्र में अंकित पांच निमित्तों को इन पांचों में इस प्रकार समाविष्ट कर सकते हैं-'गति के निमित्त से' को क्षेत्र में, 'स्थिति के निमित्त से' को काल में, 'भव के निमित्त से' को 'भव' में, 'पुद्गल के निमित्त से' को द्रव्य में तथा 'भाव या परिणाम के निमित्त से' को जीव के भाव या पुद्गल के परिणाम में समाविष्ट किया जा सकता है।
विभिन्न कर्मों का विपाक किन-किन कारणों से हो जाता है इसी प्रकार वेदनीय कर्म के विपाक में जैसे पुद्गल निमित्त होता है, वैसे ही पुद्गल-परिणाम भी निमित्त होता है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। असातावेदनीय के विपाक में एक निमित्त है-पुद्गल। एक व्यक्ति असावधानी से जा रहा है। रास्ते में पड़े हुए पत्थर से पैर टकरा गया। चोट लगी कि पैर में पीड़ा का अनुभव होने लगा। असातावेदनीय का उदय (विपाक) हो गया। मन उसी में ही बार-बार दौड़ता है, साधना में नहीं टिकता। मन की सारी गति-मति उसी में लग जाती है। मन साधना का बिल्कुल स्पर्श नहीं कर पाता। इसी प्रकार असातावेदनीय के विपाक का एक कारण है-पुद्गल-परिणाम। किसी व्यक्ति ने बीमारी की हालत में ढूंस-ठूस कर खा लिया। अर्जीण हो गया। पेट में तीव्र पीड़ा उत्पन्न हुई। उसका मन अब साधना में न लग कर उक्त असातावेदनीय के विपाक पर ही बार-बार जाता है। यह है-पुद्गल के परिणाम के कारण असातावेदनीय का विपाक (फलोदय का अनुभव)। १. (क) देखें प्रज्ञापना पद २३ में अनुभावद्वार में-गतिं पप्प, ठिई पप्प, भवं पप्प, पोग्गलं
पप्प, पोग्गल-परिणामं पप्प। (ख) चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांश ग्रहण, पृ. २००, से २०३.
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