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________________ ६८ · कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ . शक्ति, स्फुरणा एवं निर्णय की शक्ति कुण्ठित, लुप्त तथा मन्द, मन्दतर और मन्दतम हो जाती है। ज्ञानावरणीय कर्म के विपाक के कारण जीव जानने योग्य को नहीं जान पाता, पहले जाना हुआ भी भूल जाता है, जिज्ञासा होने पर भी नहीं जान पाता। (२) दर्शनावरणीय कर्म का जब विपाक होता है यानी उदय में आता है, तब फलानुभव के रूप में जीव की दर्शन (सामान्य ज्ञान की, देखने) की शक्ति आवृत हो जाती है। अर्थात्-दर्शनावरणीय कर्म के विपाक ( अनुभाव ) हैं - इन्द्रियों और मन, बुद्धि अन्तःकरण से होने वाले दर्शनगुण को ढक देना । निद्रादि आने पर जीव वस्तु का यथार्थ दर्शन नहीं कर पाता । (३) वेदनीय कर्म का विपाक है- जीव को सुख-दुःख का संवेदन होना । असातावेदनीय कर्म जब फलविपाक के लिए उदय में आता है, तब सुख के साधन होते हुए भी सुखानुभव नहीं कर पाता, इसके विपरीत सातावेदनीय कर्म का विपाक होने पर दुःख के साधन या परिस्थिति विद्यमान होने पर बी जीव दुःख का अनुभव नहीं करता, बल्कि सुखानुभव करता है। (४) मोहनीय कर्म का विपाक होता है तब राग-द्वेष, क्रोधादि कषाय का चक्र चलता रहता है। विपाक में आने पर मोहनीय कर्म का साक्षात् फल सम्यक्त्व (ज्ञानदर्शन) और चारित्र गुणों को कुण्ठित और विकृत करना है। दर्शनमोहनीय के उदय में आने पर जीवों को मिथ्यात्व के, किसी को मिश्र के और किसी को प्रशमादि परिणामों का वेदन होता है। तथा कषाय और नोकषाय का वेदन होने पर क्रोधादि तथा हास्यादि परिणामों का प्रादुर्भाव हो जाता है। (५) आयुष्य कर्म का फल विपाक है, इस कर्म के उदय में आने पर ( शस्त्रादि) निमित्त से, अथवा स्वभावतः (शीत - उष्णादिरूप पुद्गल - परिणामों से अथवा रोग, आतंक, भय, शोक, चिन्ता, तनाव आदि से) भुज्यमान आयु का ह्रास (अपवर्तन) होना । तथा नरकायु, तिर्यञ्चायु आदि कर्मों के उदय से तत्-तत्आयुजनित कर्मों का स्वत: वेदन (फलानुभव) होना । (६) नामकर्म का विपाक - नामकर्म के उदय में आने पर इष्ट शब्द, रूप आदि १४ प्रकार के शुभनामकर्म के फल का, तथा इन्हीं अनिष्ट शब्दादि १४ प्रकार के अशुभ नामकर्म के फल का अनुभव (वेदन) होता है। ये दोनों प्रकार के शुभअशुभ नामकर्मफल स्वनिमित्तक भी होते हैं, पर - निमित्तक भी। (७) गोत्रकर्म का फलविपाक दो प्रकार का होता है। उच्चगोत्रकर्म के उदय में आने पर उसका विपाक उच्च जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, श्रुत और एश्वर्य की विशिष्टता के रूप में प्राप्त होता है। जबकि नीचगोत्रकर्म के उदय से नीच जाति, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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