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६४ कर्म विज्ञान : भाग ५: कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ में मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है तथा ये दोनों ही मिथ्यात्व के उदय की विरोधिनी हैं। अतः मिथ्यात्व को अपरावर्तमाना प्रकृति क्यों मानी जानी चाहिए?
इसका समाधान यह है कि मिथ्यात्व प्रकृति का बन्ध और उदय प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है, जबकि वहाँ मिश्रमोहनीय एवं सम्यक्त्वमोहनीय का बन्ध और उदय नहीं होता है। यदि ये दोनों प्रकृतियाँ मिथ्यात्व गुणस्थान में रहकर मिथ्यात्व के उदय को रोकतीं और स्वयं उदय में आतीं, तब तो अवश्य ही विरोधिनी कही जा सकती थीं। परन्तु इनका बन्धस्थान और उदयस्थान अलग-अलग है। अर्थात्मिश्रमोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में और सम्यक्त्वमोहनीय. का उदय चौथे गुणस्थान में होता है, जबकि मिथ्यात्व या उदय पहले गुणस्थान में होता है। अतः ये दोनों प्रकृतियाँ एक ही गुणस्थान में रहकर परस्पर एक दूसरे के बन्ध या उदय का निरोध नहीं करती हैं। इसलिए मिथ्यात्व को अपरावर्तमाना कर्मप्रकृति मानी है।
इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बारे में समझना चाहिए कि उनका बन्धस्थान, उदयस्थान या बन्धोदय स्थान भिन्न-भिन्न हैं।
इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों को जानने से लाभ प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में इन दोनों प्रकृतियों का परिचय देने का उद्देश्य यह है कि प्रकृतिबन्ध के विवेचन के समय हम जिन मूल प्रकृतियों के साथ-साथ उत्तरप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण कर आए हैं, उन उत्तरप्रकृतियों में भी ध्रुवबन्धी आदि प्रकृतियों के साथ-साथ परावर्तमाना, अपरावर्तमाना प्रकृतियों को भी जानना अनिवार्य है, ताकि बन्ध और उदय के विभिन्न घात-प्रतिघातों तथा मोर्चों को जान सकें और सावधान रह सकें कि वे प्रकृतियाँ मुमुक्षु साधक पर हावी न हो सकें, वह उनका संवरण और निर्जरण कर सके, उनका उदय होने से पहले ही, सत्ता में रहे, तभी परिवर्तन, उदात्तीकरण एवं संक्रमण कर सके अथवा सुदृढ़ कदमों से अप्रमत्त और जागरूक रहकर उपशम श्रेणि या क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होकर कर्ममुक्ति की ओर बढ़ सके।
१. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, गा. १८ व्याख्या (मरुधरकेसरीजी), पृ.६८,६९
(ख) पंचसंग्रह गा. १३८ में अपरावर्तमान कर्मप्रकृतियों की संख्या बताई है। २. कर्मप्रकृतियों के ध्रुवबंधी आदि भेदों का कोष्ठक अगले पृष्ठ पर देखें।
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