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________________ ५२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जीव के नहीं होता। शेष रही ६४ प्रकृतियाँ जैसे बन्धावस्था में परस्पर विरोधिनी हैं, वैसे ही उदयावस्था में विरोधिनी हैं। इसीलिए इन्हें अध्रुवोदया कहा गया है। मोहनीय कर्म की ध्रुवबन्धिनी १९ प्रकृतियों में से मिथ्यात्व मोहनीय को छोड़ कर शेष १६ कषाय, भय और जुगुप्सा, ये १८ प्रकृतियाँ उदय में परस्पर विरोधिनी हैं। जैसे- क्रोध का उदय होने पर मान आदि अन्य कषायों का उदय नहीं होता है, तथैव मान आदि के उदय के समय क्रोध आदि के विषय में जान लेना चाहिए। ये प्रकृतियाँ बन्ध की अपेक्षा विरोधिनी नहीं होने पर भी उदय की अपेक्षा क्रोधादि कषाय - प्रकृतियाँ विरोधिनी हैं। इसी विरोधरूपता के कारण १६ कषायों को अध्रुवोदय माना गया है। भय और जुगुप्सा का उदय भी कादाचित्क है। किसी जीव के किसी समय इनका उदय होता है, किसी के किसी समय उदय नहीं भी होता । इस कारण इन दोनों को भी अध्रुवोदया में गिनाया गया है। दर्शनावरणीय कर्म के भेद-निद्रा आदि निद्रापंचक अध्रुवोदया इसलिए माने गए हैं कि इनका उदय कभी होता है, और कभी नहीं होता । तथा ये पाँच प्रकार की निद्राएँ भी परस्पर विरोधिनी हैं। यानी, एक समय में पाँच में से एक ही निद्रा का उदय होता है, अन्य निद्राओं का नहीं । उपघात नामकर्म का उदय भी किसी जीव को कभी-कभी होता है। इसलिए वह भी अध्रुवोदया प्रकृति है । · मिश्र मोहनीय प्रकृति को अध्रुवोदया इसलिए माना जाता है कि इसकी उदय विरोधिनी प्रकृतियाँ सम्यक्त्व - मोहनीय और मिथ्यात्व - मोहनीय हैं, जिनके अवस्थितिकाल में इसका उदय नहीं होता है । सम्यक्त्व- मोहनीय का उदय वेदक ( क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि को होता है और वेदक सम्यक्त्व का उदयकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागर अधिक चार पूर्व कोटि है । अतएव यह अध्रुवोदया है। मिथ्यात्व - मोहनीय को अध्रुवोदया प्रकृति न मानने का कारण यह है कि मिथ्यात्व का उदय प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में सतत रहता है, एक क्षण के लिए भी रुकता नहीं है। जबकि अध्रुवोदया प्रकृतियों का, उदय-विच्छेद न होने तक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के निमित्त से कभी उदय होता है, और कभी नहीं होता । - आवश्यक निर्युक्ति १. (क) सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाइ ठिई । (ख) विजयादिसु दोवारे गयस्स तिण्ण च्चुए व छावट्ठी । नरजम्म पुव्वकोडी पुहुत्त मुक्कोसओ अहियं ॥ ३२९४ ॥ - विशेषावश्यक भाष्य अर्थ - सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागर से कुछ अधिक है। विजयादिक में दो बार जाने वाले के अथवा अच्युत देवलोक में ३ बार जाने वाले के ६६ सागर होते हैं। और मनुष्य जन्म का पूर्वकोटिपृथक्त्व काल अधिक होता है। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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