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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता - सम्बद्धा प्रकृतियाँ ५१. अधुवोदयी प्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से ध्रुवोदयी २७ प्रकृतियाँ कम करने पर शेष ९५ प्रकृतियाँ रहती हैं, वे अध्रुवोदयी हैं। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं स्थिर, शुभ और उनसे इतर - अस्थिर और अशुभ के सिवाय शेष अध्रुवबन्धिनी ६९ प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व के सिवाय मोहनीय कर्म की ध्रुवबन्धिनी १८ प्रकृतियाँ, पाँच निद्रा, उपघात, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय, ये कुल ६९ +१८+५+१+१+१ =९५ प्रकृतियाँ अध्रुवोदया हैं । १ ये ९५ प्रकृतियाँ अधुवोदय क्यों और कैसे? इन ९५ प्रकृतियों को अध्रुवोदया मानने का कारण यह है कि इनमें से बहुत- -सी प्रकृतियाँ तो परस्पर विरोधिनी हैं तथा तीर्थंकर नाम कर्म आदि कतिपय प्रकृतियों का सदैव उदय होता नहीं है, एवं जिस गुणस्थान तक जितनी प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से विच्छेद नहीं बतलाया गया है, वहाँ तक उन प्रकृतियों के रहने पर भी उसी गुणस्थान में वह प्रकृति द्रव्य आदि की अपेक्षा से कभी उदय में आती है, कभी नहीं भी आती; इन सब कारणों से इन्हें अध्रुवोदया प्रकृतियों में परिगणित किया गया है। विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिए- पहले जो अध्रुवबन्धिनी ७३ प्रकृतियाँ बताई गई हैं, उनमें स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, इन चार प्रकृतियों के सिवाय शेष ६९ प्रकृतियाँ अध्रुवोदया हैं। इन ६९ प्रकृतियों में से उच्छ्वास, अतिष, उद्योत और पराघात, इन ५ प्रकृतियों का उदय किसी जीव के होता है और किसी (पृष्ठ ५० का शेष) (ख) निम्माणं-थिराथिर - तेय - कम्म - वण्णाइ, अगुरु- सुहमसुहं । नाणंतराय - दसगं दंसण-चउ मिच्छ निच्चोदया | 'मिच्छं सुहुमस्स घादीओ ॥ (ग) दुगं वणऊ थिर - सुह - जुगला गुरुणिमिण धुवउदया ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड ४०२, ४०३ (घ) पंचम कर्मग्रन्थ गा. ६ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. १६ से १८ (क) थिर - सुभियर विणु अधुवबंधी मिच्छ विणु मोहधुवबंधी । निद्दोवघाय मीसं सम्मं पणनवइ अधुवुदया ॥ ७ ॥ " - पंचम कर्मग्रन्थ, विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) पृ. २९ से ३१ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ, गा. ७, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. १९ से २० (ग) यहाँ पूर्वकोटिपृथक्त्व से ३ या ४ पूर्वकोटि कोट्याचार्य ने स्वटीका में लिखा पूर्वकोटिरभ्यधिकानीति शेषः । For Personal & Private Use Only Jain Education International - पंचसंग्रह ३/१६ अर्थ लेना चाहिए जैसा कि है - तिसृभिश्च है - तिसृभिश्च तिसृभिर्वा - वि. भा. टीका पृ. ७८२ www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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