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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय् - सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ४१ अर्थात्-कभी बन्ध हो जाता है, और कभी नहीं होता । नियमित रूप से इनका बन्ध न होने का कारण यह है कि इनमें से कुछ प्रकृतियाँ ऐसी हैं, जिनका स्थान उनकी विरोधी प्रकृत्तियाँ ले लेती हैं, इसलिए उनका बन्ध नहीं हो पाता। और कुछ प्रकृतियाँ अपनी स्वभावगत विशेषता के कारण कभी बंधती हैं और कभी नहीं बंधतीं । तिहत्तर प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने के कारण इन तिहत्तर प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने के कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि शरीर नामकर्म के पाँच भेदों में तैजस और कार्मण शरीर का समस्त संसारस्थ जीवों के साथ अनादि सम्बन्ध होने से इन दोनों को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना गया है। शेष रहे तीन शरीर- औदारिक, वैक्रिय और आहारक। ये तीन शरीर और इन्हीं नामों वाले अंगोपांग नामकर्म के तीन प्रकारों में से एक जीव को एक समय में एक ही शरीर और एक ही अंगोपांग का बन्ध होता है, दूसरे दोनों का नहीं । क्योंकि ये परस्पर प्रतिपक्षी होने के कारण एक के बन्ध के समय दूसरे का बन्ध नहीं हो पाता है। इसलिए ये अध्रुवबन्धिनी मानी गई हैं । समचतुरस्त्र आदि छह संस्थान भी परस्पर प्रतिपक्षी (विरोधी ) हैं । यदि समचतुरस्त्र संस्थान नामकर्म के उदय से शरीर का समचतुरस्र संस्थान (आकार) प्राप्त है, तो उसमें अन्य संस्थान का बन्ध तथा उदय नहीं हो सकता। इसी प्रकार अन्य पाँच संस्थानों के विषय में समझ लेना चाहिए। इस अपेक्षा से ये ६ संस्थान भी अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिनाये गए हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर ही वज्रऋषभनाराच आदि ६ संहननों में से किसी एक का ही बन्ध एक समय में हो सकता है, अन्य का नहीं। और देव तथा नारक- प्रायोग्य प्रकृतियों का बन्ध होने पर एक भी संहनन का बन्ध नहीं होता है। इस कारण संहनन नामकर्म की ६ प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धिनी मानी गई हैं। में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जाति- पर्यन्त पाँच जातियों में एक समय में एक ही जाति का, तथा देवगति आदि चार गतियों में से एक भव में एक ही गति का बन्ध होने से जाति नामकर्म और गति नामकर्म के भेदों को अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में परिगणित किया गया है। इसी प्रकार शुभ और अशुभ विहायोगति में से एक समय एक ही खगति का बन्ध होता है । तथैव देवानुपूर्वी आदि चार आनुपूर्वियों में से एक समय में किसी एक का ही बन्ध होता है। अतएव ये अध्रुवबन्धिनी प्ररूपित की गई हैं। इसी प्रकार त्रसदशक और स्थावर दशक की कुल २० प्रकृतियाँ परस्पर विरोधिनी हैं और वे अपने-अपने प्रायोग्य प्रकृतियों के बन्ध होने पर बँधती हैं। इस कारण इन्हें भी अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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