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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५८३ भी साम्परायिक होता है। ऐसे साम्परायिक बन्ध से कर्मबन्ध की स्थिति दीर्घ-दीर्घतर होती जाती है। ग्रन्थिभेद से प्राप्त सम्यक्त्व रत्न को रागद्वेष पुनः बढ़ाते ही खो देता है जिस रागद्वेष की जटिल गूढ़ गांठ (ग्रन्थि) का भेदन करके बड़ी मुश्किल से सम्यक्त्वरत्न प्राप्त किया था, उन्हीं रागद्वेषों को, पुनः बढ़ाते ही गए तो पुनः रागद्वेष की ग्रन्थि (गांठ) पहले से भी अधिक मजबूत हो जाएगी। फलतः जो सम्यक्त्वरत्न बड़ी कठिनाई से प्राप्त किया था, वह भी हाथ से चला जाएगा। क्योंकि सम्यक्त्व का मुख्य आधार एकमात्र शुद्ध अध्यवसाय पर निर्भर है। अध्यवसायों के मलिन होते ही सम्यक्त्व की स्थिति भी गड़बड़झाला में पड़ जाएगी; क्योंकि रागद्वेषों के कारण अध्यवसाय मलिन और अशुद्ध होते जाते हैं और प्राप्त सम्यक्त्व खतरे में पड़ जाता है। अतः रागद्वेष और मिथ्यात्व सम्यक्त्व के घातक शत्रु हैं। रागद्वेष आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं : क्यों और कैसे ? राग और द्वेष आत्मा के स्व-भाव (गुण-भाव-स्व-रूप) नहीं हैं, ये विभाव हैं, अर्थात्-विकृत या. विपरीत बने हुए भाव-विभाव कहलाते हैं। रागद्वेष विभाव हैं, क्रोधादि कषाय, क्लेश, वैर-विरोध, ईर्ष्या आदि सब विभाव हैं। जब भी आत्मा के क्षमा, समता, नम्रता, सरलता, मृदुता आदि गुण स्व-भाव (धर्म) विकृत होकर क्रोध, विषमता, अभिमान, क्रूरता-वक्रता और कठोरता आदि के रूप में परिणत हो जाते हैं; जबकि अनन्त चारित्र या यथाख्यातचारित्र रूप आत्मगुण के आधार पर बना हुआ क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच आदि आत्मा के मूलभूत गुण हैं। इन्हीं गुणों का बना हुआ भाव आत्मा का स्व-भाव कहलाता है। ... रागद्वेष : सम्यक्त्वगुणघातक, आत्मगुणघातक, स्वविकासबाधक . निष्कर्ष यह है कि सम्यक्त्व भी आत्मा का स्वभावी गुण है। जबकि राग-द्वेष वैभाविक दशा के दोषरूप दुर्गुण हैं। फलतः रागद्वेष आत्मा के गुणों का घात करते हुए आत्मा का बहुत बड़ा अहित करते हैं। साथ ही रागद्वेष से गुरुतर कर्मबन्ध के कारण आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ी हुई आत्मा को ये दोनों पीछे हटा देते हैं, अध:पतित कर देते हैं। इससे स्पष्ट है कि रागद्वेष आध्यात्मिक विकास में अवरोधक एवं बाधक है, आत्मगुणघातक, कर्मबन्धकारक हैं। रागद्वेष करने से कर्ता का ही नुकसान, सामने वाले का नहीं यह बात भी स्पष्ट है कि रागद्वेष करने से स्व-आत्मा (कर्ता) का ही अहित या नुकसान होता हैं। जिस पर वह राग-द्वेष करता है, उसका कुछ भी बिगड़ नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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