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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५७५ है और अमर्यादित-असीमित अशिष्ट शब्दों से लिपट कर आगे बढ़ता है, तब वह अल्पद्वेष से अधिक द्वेष में रूपान्तरित हो जाता है। कोई भी वस्तु सीमा में रहे, वहाँ तक ही उचित लगती है, सीमा तोड़कर उच्छृखल रूप से आगे बढ़ने पर वह दुःखदायी बन जाती है। दाल और शाक में नमक यथोचित प्रमाण में डाला जाता है, तो ठीक लगता है, परन्तु उनमें कोई दो, तीन, चार, पांच बार अधिकाधिक नमक डालता ही चला जाए तो वह अत्यन्त खारा-कटु हो जाएगा कि कोई भी व्यक्ति मुंह में भी उस दाल या साग को नहीं डाल सकेगा। इसी प्रकार थोड़ी-सी कहासुनी हो जाए, वह झटपट सुधार ली जाती है, परन्तु उस पर कोई व्यक्ति अभिमान में आकर द्वेष की मात्रा में वृद्धि करता जाए तो वह द्वेष अत्यन्त भयंकर और प्राणघातक हो जाता है। छोटी-सी बात को लेकर बार-बार झगड़ा करते जाना, एक बार के वाक्कलह से आगे अनेक बार या एकाधिक बार झगड़ते रहना, अथवा काफी देर तक या चिरकाल तक कलह करते रहना, ये सब द्वेष से द्वेष की वृद्धि के निमित्त कारण हैं। कई बार पूर्वाग्रह, ईर्ष्या, पक्षपात, या अन्याय-अत्याचार के कारण भी व्यक्ति में द्वेष वृत्ति बढ़ती जाती है। कई बार व्यक्ति किसी के प्रति मानसिक धारणाएँ या कल्पित मान्यताएँ बांधकर यह सोचने लगता है कि यह मुझे दुःखी करने वाला है, मेरा नुकसान करने वाला है, हितैषी नहीं है, ये और इस प्रकार की गलत विचारधाराओं का शिकार होकर मन ही मन उसके प्रति द्वेषभाव को पालता रहता है, बढ़ाता रहता है। मन ही मन द्वेष की वृद्धि होते-होते व्यक्ति सामने वाले को कट्टर दुश्मन मानकर वैर का बदला लेने को उतारू हो जाता है। उस द्वेष को क्रियान्वित करने के लिए कभी-कभी वह उसे मारने, सताने, बदनाम करने या उसकी हत्या . करने का भी साहस कर लेता है। इस प्रकार द्वेष से द्वेष बढ़ने का विकल्प सबसे निकृष्ट और घोर पापकर्मबन्धक है। यों तो राग से राग आदि चारों ही विकल्प खतरनाक हैं, दु:खदायी हैं, मानसिक शान्ति, समता और अनाकुलता को समाप्त करने वाले दावानल-रूप है। द्वेष का राग में रूपान्तर होने वाला तीसरा विकल्प फिर भी ठीक है, जिसमें बिगड़ी हुई बाजी सुधर जाती है। द्वेष का द्वेष में रूपान्तर नामक चौथा विकल्प कथमपि उपादेय नहीं है। .. संसार में राग की अधिकता है या द्वेष की? . संसार में राग अधिक है या द्वेष? इसका उत्तर देना बड़ा कठिन है, क्योंकि इस संसार में जितने राग के निमित्त हैं, उतने ही द्वेष के निमित्त हैं। राग और द्वेष, स्थायी १. कर्म की गति न्यारी से भावांश ग्रहण, पृ. १८, १९ । २. कर्म की गति न्यारी भा. ८ से भावांशग्रहण, पृ. १७-१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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