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________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५२९ योनियों के उन पड़ावों में अपने-अपने पूर्वजन्म-बद्ध कर्मों के फलस्वरूप अच्छे या बुरे जीवों या व्यक्तियों से वास्ता पड़ता है। वहाँ फिर वह जीव अपनी प्रकृति के अनुसार प्रत्येक जन्म में सम्बद्ध व्यक्तियों (परिवार, समाज आदि) के साथ अच्छा या बुरा व्यवहार करके पुनः शुभ-अशुभ कर्मबन्ध करता रहता है। तत्फलस्वरूप उसका भी अपने बन्धानुरूप अच्छे-बुरे व्यक्तियों से सम्बन्ध जुड़ता है। इस बन्धपरम्परा की यात्रा काफी लम्बी चलती है। इस बन्ध-परम्परा को ही वैदिक धर्मपरम्परा में 'ऋणानुबन्ध' संज्ञा दी गई है। ऋणानुबन्ध या बन्धपरम्परा का कारण और स्वरूप इस जन्म-जन्म की यात्रा के दरम्यान एक जीव अनेकानेक अन्य जीवों के साथ परिचय और सम्पर्क में आता है। पूर्वबद्ध कर्मबन्धानुसार वह जब उस उस भव में उन अनुकूल-प्रतिकूल प्रकृति वाले तथा इष्ट-अनिष्ट संयोगों और परिस्थितियों वाले जीवों के सम्पर्क में आता है, जुड़ता है, तब उनके प्रति द्वेष के तीव्र या मन्द भाव लाकर परस्पर कर्मों से बद्ध होता जाता है। रागद्वेष की इस श्रृंखला का ही दूसरा नाम ऋणानुबन्ध है, इसे हम शुभाशुभबन्ध की परम्परा भी कह सकते हैं। ऋणानुबन्ध नाम की सार्थकता ऋण का अर्थ है- कर्ज, और अनुबन्ध का अर्थ है- उसका अनुसरण करने वाला-तदनरूप फल देने वाला बंध। राग से शुभबन्ध होता है और द्वेष से अशुभबन्ध। शुभबन्ध जब उदय में आता है तो उसका फल मधुर होता है जबकि अशुभबन्ध का कटु। इस प्रकार जन्म-जन्म में अन्य जीवों के साथ बार-बार होने वाले शुभ-अशुभ अध्यवसायों परिणामों के कारण वह ऋणानुबन्ध (बन्ध-परम्परा) उत्तरोत्तर दृढ़ होती जाती है। .. वह पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मबन्ध ही एक प्रकार का ऋण है, वह जिसका जिसके साथ पूर्वजन्म या जन्मों में बँधा है, उसका फलभोग अगले जन्म या जन्मों में उदय में आकर उसी जीव के निमित्त से होता है। अर्थात्-उस पूर्वबद्ध शुभ-अशुभ ऋण (कर्ज) को उतारने या वसूल करने के लिए वह जीव ऋणानुबन्धी जीवों के साथ सांसारिक सम्बन्धों से जुड़ता है। कोई माता-पिता बनते हैं, कोई पति-पत्नी, तो कोई भाई-भाभी, कोई भाई-बहन, कोई सास-बहू, कोई ननद-भौजाई, कोई चाचाचाची, कोई मामा-मामी, कोई मौसी-भानजी, तो कोई देवरानी-जिठानी बनते हैं। १. देखें-कल्याण (मासिक) (गीता प्रेस, गोरखपुर) अप्रेल १९९० अंक में प्रकाशित 'ऋणानुबन्ध' लेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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