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________________ | ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण दीर्घमार्ग-यात्री के समान दीर्घसंसार-यात्री को भी कटु-मधुर अनुभव प्राचीन काल में अधिकांश यात्रीगण लम्बी यात्रा करने के लिये पैदल यात्रा करते थे। बीच-बीच में वे पड़ाव डालते हुए चलते थे और रात्रिविश्राम करके दूसरे दिन सुबह अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देते थे। इस प्रकार जहाँ-जहाँ वे पड़ाव डालते थे, उस. गाँव के लोग सज्जन होते तो उनका स्वागत करते थे, आहार-पानी से तथा आवासीय सुविधा देकर उनकी सेवा करते थे। इसके विपरीत यदि पड़ाव वाले गाँव के लोग दुर्जन होते या दुष्ट, उद्दण्ड या अपराधी प्रकृति के होते तो उन्हें लूट लेते, या आगे खदेड़ देते अथवा आहार-पानी देना तो दूर रहा, उन्हें अपने गाँव में ठहरने के लिये स्थान भी नहीं देते थे। अथवा लड़ाई-झगड़ा या बकझक करके उनके साथ दुर्व्यवहार करते थे। यात्रीगण भी आवेश और रोष में आकर उनके साथ गालीगलौज या मारपीट तक करने पर उतारू हो जाते थे। इस प्रकार सुदूर मंजिल तक यात्रा में कई यात्रियों को कई कड़वे-मीठे अनुभव होते थे। उनमें से कुछ यात्रीगण इस प्रकार के भी होते थे, कि वे यात्रा के दौरान जिस स्थान पर पड़ाव डालते, वहाँ जैसी-जैसी रहने-खाने की सुविधा-असुविधा मिलती, उसके अनुसार अपने आप को समभाव- पूर्वक एडजस्ट कर लेते। अगर उस पड़ाव वाले स्थान के लोग खराब प्रकृति के झगड़ालू होते तो भी वे उनके प्रति मधुरता से, प्रेम से, आत्मीयता से उन्हें अपना बना लेते और अपने भाग्यानुसार सुख-दुःख की प्राप्ति मानकर अपनी लम्बी यात्रा पूर्ण करते थे। ठीक यही बात संसारयात्रियों के लिये कही जा सकती है। वे भी इसी तरह अपने-अपने कर्मानुसार एक गति से दूसरी गति में, एक योनि से दूसरी योनि में और एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में तथा पंचेन्द्रियों में कभी देव, मनुष्य, तिर्यंच या नारक बनकर अपनी यात्रा करते रहते हैं। सांसारिक जीव-यात्रियों को भी गतियों और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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