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५२६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
इस अयोगि केवली अवस्था में व्युपरतक्रियाऽप्रतिपाती ध्यान करते हैं। यहाँ स्थितिघात आदि नहीं होता है। अतः जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो स्थिति का क्षय होने से भोग (अनुभव) कर नष्ट कर देते हैं। किन्तु जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता, उनका स्तिबुक-संक्रम के द्वारा वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करके अयोगि-अवस्था के उपान्त समय में ७२ का और अन्त समय में १३ प्रकृतियों का क्षय करके निराकार, निरंजन, सिद्ध-बुद्ध, सर्वदुःखप्रक्षीणक होकर अनन्त अव्याबाध शाश्वत सुख के धाम-मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
(पृष्ठ ५२५ का शेष) (ख) प्रकृतियों का विच्छेद होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-नौवें गुणस्थान के नौ
भागों में से पहले भाग में नामकर्म की १३ प्रकृतियाँ (नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, विकलत्रिक, आतप, उद्योत, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर) तथा दर्शनावरणीय की तीन प्रकृतियाँ (स्त्यानर्द्धित्रिक) कुल १६ प्रकृतियों का क्षपण होता है। दूसरे भाग में अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, यों कुल ८ प्रकृतियों का क्षपण होता है। तीसरे भाग में नपुंसकवेद का चौथे भाग में स्त्रीवेद का, पांचवें भाग में हास्यादिषट्क का, छठे, सातवें, आठवें और नौवें भाग में क्रमशः पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया का क्षपण होता है। इस प्रकार नौवें गुणस्थान में ३६ प्रकृतियों का व्युच्छेद होता है। दसवें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ तथा बारहवें गुणस्थान में ५ ज्ञानावरणीय की, ४ दर्शनावरणीय की, ५ अन्तराय की तथा निद्रा और प्रचला; यों १६ प्रकृतियाँ क्षय होती हैं। फिर सयोगि केवली होकर चौदहवां गुणस्थान प्राप्त होता है। फिर १४वें गुणस्थान के उपान्त्य समय में नाम, गोत्र और वेदनीय ६८+२+२=७२ प्रकृतियों का और अन्त समय में १३ प्रकृतियों का क्षय हो
जाता है। जो क्षपक श्रेणि का खास प्राप्तव्य है। -कर्मग्रन्थ ५ परिशिष्ट पृ. ४५३ १. (क) चौदहवें अयोगि केवली गुणस्थान के अन्त समय में कई आचार्य १३ के बदले
१२ प्रकृतियों का क्षय मानते हैं। उनका कहना है कि मनुष्यानुपूर्वी का क्षय द्विचरम समय में ही हो जाता है। क्योंकि उसके उदय का अभाव है। जिन प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें स्तिबुक संक्रम न होने से अन्त समय में अपने-अपने स्वरूप से उनके दलिक पाये जाते हैं जिससे उनका चरमसमय में सत्ताविच्छेद होना युक्तिसंगत है। चूंकि चारों ही आनुपूर्वी क्षेत्र विपाकी होने के कारण दूसरे भव के लिए गति करते समय ही उदय में आती हैं। अतः इस भव में जीव को उनका उदय नहीं हो सकता। उदय न हो सकने से-अयोगिअवस्था में द्विचरम-समय में ही मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता का क्षय हो जाता है।
(शेष पृष्ठ ५२७ पर)
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