SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 544
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सयोगिकेवली अवस्था की स्थिति तथा केवली भगवान् का कार्य यह सयोगिकेवली अवस्था जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः कुछ कम एक पूर्वकोटि काल की होती है। इस कालावधि में केवली भगवान् स्व-पर-कल्याणार्थ (पृष्ठ ५२३ का शेष) । (ग) मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम्॥ -तत्त्वार्थ सूत्र १०/२ . (घ) गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ३३५ से ३३७ तक में क्षपक श्रेणि का क्रम विधान इस प्रकार है- असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत । मनुष्य पहले ही की तरह अध:करण (यथाप्रवृत्तकरण), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का एक साथ विसंयोजन करता है, अर्थात् -उन्हें १२ कषाय और नौ नोकषायरूप परिणमाता है। उसके बाद एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके दर्शनमोह का क्षपण करने के लिए पुनः करणत्रय करता है। अनिवृत्तिकरण के काल में जब एक भाग काल बाकी रह जाता है और बहुभाग बीत जाता है, तब क्रमशः मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृतियों का क्षपण करता है। और इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। उसके पश्चात् चारित्रमोह का क्षपण करने के लिए क्षपकश्रेणि चढ़ता है। सर्वप्रथम सातवें गुणस्थान में अधःकरण करता है। तत्पश्चात् आठवें गुणस्थान में पहुँच कर पूर्ववत् स्थितिघात, रसघात आदि कार्य करता है। फिर नौवें गुणस्थान में पहुंच कर नामकर्म की १३ और दर्शनावरण की ३, इस प्रकार १६ प्रकृतियों का क्षपण करता है। उसके बाद उसी गुणस्थान में क्रमशः ८ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान, और संज्वलन-माया का क्षपण करता है। फिर दसवें से सीधा एकदम बारहवें गुणस्थान में पहुँच कर १६ प्रकृतियों का क्षपण करता है। तदनन्तर सयोगिकेवली होकर चौदहवें गुणस्थान में चला जाता है, और उसके उपान्त समय में ७२ प्रकृतियों का और अन्तिम समय में १३ प्रकृतियों का क्षपण करके अयोगि केवली मुक्त हो जाता है। -पंचम कर्मग्रन्थ (पं. कैलाशचन्द्र जी) पृ. ३३९ पर उद्धृत (ङ) क्षपक श्रेणि-आरोहक कौन हो सकते हैं? इस सम्बन्ध में गोम्मटसार कर्मकाण्ड में बताया है कि नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु इन तीनों की सत्ता के रहते क्षपकश्रेणि नहीं होती। नरकायु की सत्ता (सत्व) रहते देशविरत नहीं होते, तिर्यंचायु की सत्ता में महाव्रत नहीं होता और देवायु की सत्ता में क्षपक श्रेणि नहीं होती। अतः क्षपकश्रेणि का आरोहक मनुष्य ही होता है-वह चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थान वाला। क्षपक श्रेणि के आरोहक मनुष्य (नर नारी) के नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु की सत्ता नहीं होती है। -पंचम कर्मग्रन्थ परिशिष्ट पृ. ४५२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy