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________________ ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५०९ गुण-संक्रम के द्वारा अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी आदि अशुभ प्रकृतियों के थोड़े-से दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है । और उसके पश्चात् प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है तथा अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही पूर्वोक्त पांच कार्य एक साथ होने लगते हैं। अपूर्वकरण का काल समाप्त होने पर तीसरा 'अनिवृत्तिकरण' होता है। इसमें भी प्रथम समय से हीं पूर्वोक्त पांच कार्य एक साथ होने लगते हैं। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। उसमें से संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर जब एक भाग बाकी रहता है, तो अनन्तानुबन्धी कषाय के एक आवली प्रमाण नीचे के निषेकों को छोड़कर बाकी निषेकों का उसी तरह अन्तरकरण किया जाता है, जैसे कि पहले मिथ्यात्व' का बतलाया है। जिन अन्तर्मुहूर्तप्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है, उन्हें वहाँ से उठा कर बंधने वाली अन्य प्रकृतियों में स्थापित कर दिया जाता है। अन्तरकरण के प्रारम्भ होने पर, दूसरे समय में अनन्तानुबन्धी कषाय के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों का उपशम किया जाता है, पहले समय में थोड़े दलिकों का उपशम किया जाता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है, तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है। अन्तर्मुहूर्त काल तक इसी तरह असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का प्रतिसमय उपशम किया जाता है। फलतः इतने समय में समग्र अनन्तानुबन्धी कंषाय का पूर्णतया उपशम हो जाता है और वह उपशम इतना सुदृढ़ होता है कि उदय, उदीरणा, निधत्ति आदि करणों के अयोग्य हो जाता है। जिस प्रकार धूल पर पानी छींट-छींट कर उसे धुरमुच से कूट देने पर वह (धूल) दब- जम जाती है, फिर वह हवा आदि से उड़ नहीं सकती; इसी प्रकार कर्मरज भी विशुद्धि रूपी जल से सींच-सींच कर अनिवृत्तिकरणरूपी धुरमुच से कूट दिये जाने पर दब (शान्त हो) जाती है, फिर वह उदय, उदीरणा और निधत्ति आदि नहीं कर सकता। यही अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम है। २ १. जैसा कि मिथ्यात्व का अन्तरकरण इसी भाग की गा. १० में बताया है। २. कई आचार्य अनन्तानुबन्धी कषाय का 'उपशम' न मानकर 'विसंयोजन' मानते हैं। जैसा कि कर्मप्रकृति (उपशमकरण) में लिखा है चउगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संजोयणा वियोजंति । करणेहिं तीहिं सहिया नंतरकरणं उवसमो वा ॥ ३१ ॥ अर्थात्- चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थानवर्ती यथायोग्य चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों के द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करते हैं । किन्तु वहाँ न तो अन्तरकरण होता है, और न अनन्तानुबन्धी का उपशम ही । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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