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________________ ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५०५ शिखर पर पहुँच कर ही विश्राम लेता है । वह इतना बाहोश और उत्साही होकर चढ़ता है कि कहीं भी पैर फिसलने का काम नहीं, कहीं भी ठिठकने रुकने का नाम नहीं। केवल मोक्ष पर्वत-शिखरारोहण ही उसका एकमात्र लक्ष्य होता है, लक्ष्य की दिशा में वह बीच की श्रेणियों को ८वीं श्रेणी से ही सर करता हुआ १०वीं श्रेणी से बारहवीं श्रेणी पर लंका-प्रापक वीर हनुमान की तरह छलांग लगा लेता है। मोक्ष-शिखर पर पहुँचने के लिए दो प्रकार के श्रेणी आरोहण यही बात मोक्ष की ओर ऊर्ध्वारोहण करने वाले दो प्रकार की श्रेणी के आरोहकों (श्रेणी के सहारे चढ़ने वाले दो ऊर्ध्वारोहकों) के विषय में कही जा सकती है। पहले प्रकार के श्रेणी - आरोहक उपशम श्रेणी वाले कहलाते हैं और दूसरे प्रकार के श्रेणी - आरोहक कहलाते हैं - क्षपक श्रेणी वाले । उपशम श्रेणी वाले पहली श्रेणी से ही सुस्त होकर चलते हैं। वे बीच-बीच में आने वाले मोहकर्म के तूफानों दबाते - शान्त करते हुए आगे बढ़ते हैं। बीच-बीच में विश्रान्ति लेते हैं, फिर ताजा 'होकर मोह की व्याधि को दबाते - उपशान्त करते हुए आगे बढ़ते हैं। बीच-बीच में रुकते हैं, मोहकर्म के विभिन्न सैनिकों को शान्त करते हैं। फिर उत्साहित एवं सशक्त होकर आगे की श्रेणी पर चढ़ने के लिए पराक्रम करते हैं । उपशम श्रेणी पर चढ़ने के अभ्यासी का मार्ग सातवें गुणस्थान से आगे फट जाता है । और वह मोहकर्म के विविध सैनिकों का उपशमन (दमन) करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है उपशम श्रेणी आरोहण का अभ्यासक्रम ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचने से पहले वह संसारयात्री सातवें गुणस्थान तक किस क्रम से मोहकर्म के सैनिकों का उपशमन - दमन करता हुआ चलता है ? यह कर्मग्रन्थ में बताया है - वह पहले अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम करता है, जो उसकी बुद्धि, स्मृति, ज्ञान एवं आत्मविद्या को कुण्ठित, आवृत एवं विमूढ़ कर देता है और संसार - परिभ्रमण कराता है । तदनन्तर दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करता है, फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेद का उपशम करता है। उसके बाद एक-एक संज्वलन - कषाय का अन्तर देकर दो-दो सदृश कषायों का एक साथ उपशम करता है । अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध का उपशम करके संज्वलन - क्रोध का उपशम करता है, फिर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम करके संज्वलन - मान का उपशम करता है, तदनन्तर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम करके संज्वलन - माया का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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