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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४९३ अजीवोदयनिष्पन्न का अर्थ है- जीव द्वारा ग्रहण किये गये औदारिक आदि शरीर में कर्म के उदय से उत्पन्न हुए वर्णादि - परिणाम अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव हैं। जिसका स्पष्ट आशय यह है कि औदारिक आदि शरीरयोग्य पुद्गलों का उस-उस शरीररूप में परिणमन तथा शरीर में भी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप परिणमन, यह सब कर्मोदय के बिना नहीं होता है, इसलिए ये अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव कहलाते हैं । (२) औपशमिक भाव के दो भेद हैं-उपशम और उपशम- निष्पन्न। उनमें से उपशम कहते हैं- भस्म से आच्छादित आग की तरह कर्म की सर्वथा अनुदयावस्था को, अर्थात् - प्रदेश से भी जिसरे उदय का अभाव हो, उसको । आशय यह है कि कर्म को ऐसी स्थिति में स्थापित कर देना कि वह रस से अथवा प्रदेश से भी अपने विपाक का वेदन न करा सके, यह उपशम है। ऐसा उपशम सर्वोपशम है, जो मोहनीय कर्म का ही होता है, अन्य कर्मों का नहीं । उपशमनिष्पन्न कहते हैं-कर्म के सर्वथा उपशम द्वारा उत्पन्न जीवस्वभाव को । जो क्रोधादि कषायों के उदय का सर्वथा अभाव होने से उसके फलरूप में उत्पन्न परमशान्त - अवस्थारूप जीव का परिणामविशेष है। कर्मग्रन्थ के अनुसार ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों में से उपशमभाव मोहनीय कर्म में ही प्राप्त होता है; अन्य कर्मों में नहीं; क्योंकि मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम होने से जैसे उपशम भाव का सम्यक्त्व और उपशमभावरूपयथाख्यातचारित्र होता है, उसी प्रकार से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का उपशम होने से केवलज्ञानादि गुण उत्पन्न ही नहीं होते हैं। उपशम के दो प्रकार हैंदेशोपशम और सर्वोपशम । यहाँ उपशम शब्द से सर्वोपशम समझना चाहिए, देशोपशम नहीं; क्योंकि देशोपशम तो आठों ही कर्मों का होता है, जो कार्यकारी नहीं है । यह औपशमिक भाव अनेक प्रकार का है। यथा-उपशान्तवेद, उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्त दर्शनमोहनीय, उपशान्त चारित्रमोहनीय आदि । २ १. (क) उदइए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-उदइए उदयनिप्फन्ने य। (ख) उदइए अट्ठण्हं कम्मपगडीणमुदए, से तं उदइए। (ग) रइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे कोहकसाई जाव लोहकसाई, इत्थीवेदए पुरिसवेदए नपुंसगवेदए, कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्ठी, अविरए अण्णाणी " असिद्धे । - अनुयोगद्वारसूत्र २३४/२३७ २. (क) उवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - उवसमे अ, उपसमनिप्फण्णे अ। उवसमिया सम्मत्तलद्धी उवसमिआ चारित्रलद्धी । - अनुयोगद्वार सूत्र २३९, २४१ (ख) सव्ववसमणा मोहस्सेव । -कम्मपयडी (उपशमना प्रकरण) (ग) पंचसंग्रह भा. २ विवेचन, पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only ' www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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