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________________ ४९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ पारिणामिक भाव तीन प्रकार का है-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। जीवत्व का व्युत्पत्त्यर्थ होता है-जो दश प्रकार के प्राणों से जीता है, जीता था और जीएगा। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जीवत्व कर्मजनित दशविध-प्राणरूप होने से नश्वर एवं अशुद्ध पारिणामिक भाव है। तीनों अशुद्ध पारिणामिक भाव (अशुद्ध) व्यवहार नय की अपेक्षा से संसारी जीव के होते हैं। धवला' में कहा गया है-जीवत्व रूप (अशुद्ध) पारिणामिक भाव प्राणों को धारण करने की अपेक्षा से होने वाला अयोगी केवली गुणस्थान से आगे नहीं पाया जाता। सिद्धों के कारणभूत अष्ट कर्मों का अभाव है। अतः मुक्त जीव में एक भी अशुद्ध पारिणामिक भाव नहीं होता है। औदयिक आदि पांच भावों के दो-दो भेद और प्रभेद ___ जीव की विभिन्न अवस्थाओं को बताने वाले पांच या छह भावों की व्याख्या करने के बाद अब अनुयोगद्वार सूत्र में औदयिक आदि पांचों भावों की उत्पत्ति को लेकर दो अथवा अनेक भेद बताए गए हैं, उन्हें भी जान लेना चाहिए। (१) औदयिक भाव के मुख्य दो भेद हैं-उदय और उदय-निष्पन्न। आठ कर्मप्रकृतियों का शान्तावस्था (सत्तावस्था) का परित्याग करके उदीरणावलिका का अतिक्रमण कर अपने-अपने स्वरूप के अनुसार विपाक-फलानुभव कराना उदय है, उदय जिसका कारण है, वह भाव औदयिक है तथा कर्मों के उदय द्वारा निष्पन्न हुआ जीव का स्वभाव उदय निष्पन्न है। फिर उदय-निष्पन्न के दो भेद हैं-जीवविषयक और अजीवविषयक। उनमें से नरकगति आदि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए नारकत्व आदि पर्याय के परिणाम को जीवविषयक औदयिक भाव कहते हैं। जीवोदयनिष्पन्न औदयिक भाव के अनेक भेद हैं। यथा-नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व , देवत्व, पृथ्वीकायत्व, अप्कायत्व, तैजस्कायत्व, वायुकायत्व, वनस्पतिकायत्व, त्रसकायत्व, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, मिथ्यादृष्टित्व, अविरतित्व, अज्ञानित्व, आहारकत्व, छद्मस्थ भाव, सयोगित्व और संसारावस्था आदि ये सभी भाव जीव के कर्मों के उदय से निष्पन्न होने के कारण जीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। १. (क) द्रव्यसंग्रह टीका १३, .. (ख) जैनदर्शन में आत्मविचार, पृ. १२८ (ग) धवला १४/५/६/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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