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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४८३ सम्पादित मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान, ये ७ भेद, दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से साधित चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन, ये तीन भेद, मोहनीय कर्म के एकभेद-दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक्त्व और दूसरे चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से प्राप्त देशविरतिरूप और सर्वविरतिरूप चारित्र। इस प्रकार मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से साधित तीन भेद, तथा अन्तरायकर्म के क्षयोपशम से उपलभ्य दानादि पांच लब्धियाँ यों कुल मिलाकर ७+३+३+५=१८ भेद क्षायोपशमिक भाव के बताये गए हैं। ये अठारह भेद क्षायोपशमिक क्यों ? ये १८ भेद क्षायोपशमिक क्यों हैं? इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है-सम्यक्त्व-(मोहनीय) प्रकृति के देशघाती२ स्पर्द्धकों के उदय के साथ रहने वाला सम्यक्त्व-परिणाम क्षायोपशमिक कहलाता है। इसी प्रकार (पूर्ण) ज्ञान (शक्ति) के विनाशं का नाम क्षय है, उस क्षय का उपशम हुआ एकदेशक्षय; इस प्रकार ज्ञान के एकदेश-क्षय की अपेक्षा मतिज्ञानादि सात की क्षयोपशम संज्ञा मानी । जाती है। अपने-अपने कर्मों के सर्वघाति-स्पर्द्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण मति आदि (७) ज्ञान-अज्ञान तथा चक्षु आदि (३) दर्शन क्षायोपशमिक हैं। संज्वलन कषाय व नोकषाय के क्षयोपशम संज्ञा वाले देशघाति-स्पर्द्धकों के उदय से होने वाले कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है तथा नोकषाय के सर्वघाती स्पर्द्धकों की शक्ति का अनन्तगुण क्षीण हो जाना ही उनका क्षय, साथ ही उन्हीं के देशघाती स्पर्द्धकों का सदवस्थारूप उपशम, इन दोनों से युक्त उसी के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से होने के कारण प्रमत्त व अप्रमत्त संयत गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं अथवा पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान की क्षायोपशमिकता इस प्रकार समझनी चाहिए-अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरणीय के उदयाभावी क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से और प्रत्याख्यानावरणीय, संज्वलन कषाय और नोकषाय रूप देशघाति कर्मों के उदय से होने के कारण संयतासंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक है, इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणीय के सर्वघाति स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से, उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा संज्वलनरूप देशघाती के उदय से होने के कारण प्रमत्त १. जैनदर्शन (न्यायविजयजी), पृ. ३०८ २. कर्मस्कन्ध में उसके अनुभाग में जीव के कषाय व योग में तथा इसी प्रकार स्पर्द्धक संज्ञा का ग्रहण किया जाता है। किसी भी द्रव्य के प्रदेशों में अथवा उसकी शक्ति के अंशों में जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है उसी से स्पर्द्धक उत्पन्न होते हैं। -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. ४, पृ. ४७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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