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________________ ... ष दशाएँ ४८२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ खण्ड (अंग) (प्रबलरूप से) उपलब्ध रहता है, इस कारण वह जीवगुण को घातने में समर्थ नहीं होता, इस अपेक्षा से इसे औदयिक भाव न कहकर क्षयोपशम भाव माना गया है। इसकी प्रक्रिया का निरूपण करते हुए 'धवला' में कहा गया हैसर्वघाति-स्पर्द्धक जब अनन्तगुणे हीन होकर तथा देशघातिस्पर्द्धकों में परिणत होकर उदय में आते हैं, तब उन सर्वघातिस्पर्द्धकों का अनन्तगुणहीनत्व ही 'क्षय' कहलाता है और उनका देशघातिस्पर्द्धकों के रूप में अवस्थान होना उपशम है। उन्हीं क्षय और उपशम से संयुक्त उदय का नाम क्षयोपशम भाव (क्षायोपशमिक पर्याय) है। चार घातिकर्मों के क्षयोपशम से निष्पन्न क्षायोपशमिक भाव के १८ भेद चूँकि घातिकर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली अवस्था क्षायोपशमिक भाव होती है, इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म के प्रारम्भ के चार भेदों के क्षयोपशम से १. (क) तत्त्वार्थसूत्र २/४, (ख) तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः। -धवला १/१, १, ८/१६१ (ग) यथा प्रक्षालन-विशेषात् क्षीणाक्षीण मदशक्तिकस्य कोद्रवस्य द्विधा वृत्तिः, तथा यथोक्तक्षयहेतुसन्निधारे सति कर्मण एकदेशस्य क्षयादेकदेशस्य च वीर्योपमादुत्मनो भाव उभयात्मको मिश्र इति व्यपदिश्यते। ' - -राजवार्तिक २/५/१५७/३ (घ) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन २/४ (पं. सुखलालजी), पृ. ४८ । (ङ) उदयावलिका-प्रविष्टस्यांशस्य क्षयेण, अनुदयावलिका-प्रविष्टस्योपशमेन विपाकोदय-निरोधलक्षणेन निवृत्तः क्षायोपशमिकः । । -पंचसंग्रह मलयगिरि टीका, पृ. २९ (च) प्रशमरति, श्लोक १९६ टीका, पृ. ९१ . (छ) जैन दर्शन, पृ. ३०८ (ज) सर्वघाति-स्पर्द्धकानामुदय क्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्देशघाति-स्पर्द्धकानामुदये क्षायोपशमिको भावो भवति। ___ -सर्वार्थसिद्धि २/५/१३७/३ (झ) कर्मग्रन्थ (मरुधरकेसरी) भा. ४, विवेचन, पृ. ३२४ (ब) कर्मणां फलदान-समर्थतया उद्भूत्यनुद्भूती क्षयोपशमः। ____-पंचास्तिकाय त. प्र.,५६ (ट) कम्मोदए संते वि जं जीवगुणक्खंडमुवलंभदि सो खओवसमिओभावो णाम। _ -धवला ५/१,७, १/१८५ (ठ) सव्वघादि-फद्दयाणि अणंतगुणहीणाणि होदूण देसघादि-फद्दयत्तेण परिणमिय उदयमागच्छंति तेसिमणंत गुणहीणतं खओ णाम। देसघादि-फद्दमसरूवेणवट्ठाणमुवसमो। तेहिं खओवसमेहिं संजुत्तोदओ खओवसमो णाम। -धवला ७/२, १, ४९/९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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