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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४७१ उठाया गया है कि औदयिक भाव तो निगोद से लेकर समस्त संसारी जीवों के होता है, और औपशमिक तो कितनों को ही होता है। अतः औदयिक भाव को छोड़कर सर्वप्रथम औपशमिक भाव को ग्रहण करने का क्या कारण है? इसका समाधान यह है कि वस्तु का ऐसा स्वरूप बताना चाहिए, जो असाधारण हो. जिससे उसकी अन्य से व्यावृत्ति की जा सके, उसकी विशेषता और पृथक्ता समझी जा सके। इसी हेतु से जीव का स्वरूप बतलाते समय प्रारम्भ में औदयिक को ग्रहण न करके औपशमिक भाव का विन्यास किया गया है। आशय यह है कि औदयिक और परिणामिक ये दो भाव तो अजीवद्रव्य में भी पाये जाते हैं। इसीलिए उन भावों को प्रारम्भ में ग्रहण नहीं किया गया। क्षायिक भाव औपशमिक भावपूर्वक ही होता है, क्योंकि कोई भी जीव उपशम भाव को प्राप्त किये बिना क्षायिक भाव को प्राप्त नहीं करता। इसलिए क्षायिक को प्रारम्भ में नहीं रखा गया। क्षायोपशमिक भाव औपशमिक से अत्यन्त भिन्न नहीं है। यही कारण है कि सर्वप्रथम औपशमिक भाव को ग्रहण किया गया है। औपशमिक भाव : स्वरूप, फल और कार्य · कर्मों का उदय कुछ समय के लिए रोक देना या उसका प्रभाव शान्त हो जाना उपशम है। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है- 'जिस प्रकार कतक (निर्मली) या फिटकरी आदि पदार्थ मैले या गंदे जल में डालने से उसकी मलिनता या कीचड़ (कुछ देर के लिए) नीचे बैठ जाती है, दब जाती है, और पानी स्वच्छ व शान्त दिखाई देता है, अर्थात् जिस प्रकार मलिन जल कुछ देर तक निश्चल होकर बर्तन के तल में बैठ जाता है, और उसके ऊपर वाला जल सर्वथा शुद्ध और निर्मल हो जाता है, इसी प्रकार कर्म मल के विपक्षी कारणों के संयोग से कुछ काल पर्यन्त निश्चल रूप से साधना करने पर कर्ममल कुछ देर के लिये नीचे बैठ जाता है, शान्त हो जाता है, अचेत होकर फलदान से विरत हो जाता है, अथवा कर्म के प्रभाव से आत्मा को प्रभावित न होने देना उपशम कहलाता है। संक्षेप में, उपशम का पारिभाषिक अर्थ है-कुछ देर के लिए मोहनीय कर्ममल का शान्त हो जाना, उदय में न आना। उपशम की शास्त्रीय परिभाषा है- प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार से कर्मोदय का (थोड़ी देर के लिये) रुक जाना उपशम है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार- आत्मा में कर्म की निजशक्ति (फलदानशक्ति) का कारणवश प्रगट न होना उपशम है, उपशम जिस भाव का प्रयोजन-कारण है, वह औपशमिक भाव है। धवला के अनुसार- जो कर्मों के उपशम से उत्पन्न होता है, वह औपशमिक भाव है। अथवा कर्मों के उपशम से १. पंचसंग्रह भाग २, गा. २ पर विवेचन, पृ.७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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