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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४६९ संवृत एवं सुदृढ़ कर सकता है। वह अपने भावों को उपशान्त, क्षीण या क्षयोपशमयुक्त, अथवा स्वाभाविक बना सकता है, और कुछ नहीं तो अपने इन भावों का पता लगा सकता है।
पांच भावों को जानना आवश्यक : क्यों और कैसे? जैसे-कुशल नाविक समुद्र से उठने वाली तरंगों को जान लेता है कि ये तरंगें बहुत दूर-दूर ऊँची उछलने वाली हैं, या थोड़ी दूर तक बढ़कर उपशान्त होने वाली हैं, अथवा थोड़ी देर तक उछल-कूद मचाकर बालू के साथ मिलकर सदा के लिये मिट (क्षीण हो) जाने वाली हैं; अथवा थोड़ी देर में समुद्र में विलीन होती है पुनः उपशान्त हो जाती है, या फिर वे समुद्र के साथ अभिन्न होकर स्वाभाविक अवस्था में पड़ी हैं? इसी प्रकार कर्मविज्ञान कुशल साधक जान लेता है कि पूर्वबद्ध कर्मों में से कौन-से कर्म उदयावस्था (पर्याय) में हैं, कौन-से उपशम-अवस्था में हैं, कौन-से कर्म क्षयोपशम-अवस्था में हैं, और कौन-से कर्म क्षायिक अवस्था (पर्याय) में हैं? या आत्मा का वह स्वाभाविक तत्व है (पारिणामिक भाव) है, जो न तो कर्म से सम्बद्ध है और न कर्मों के क्षय-क्षयोपशम-उपशमादि से सम्बद्ध है?
पांच भाव : जीव की पांच अवस्थाएँ कर्मविज्ञान बताता है कि इन पांच भावों का प्ररूपण समग्र जीवराशि की अपेक्षा से या किसी जीव-विशेष में सम्भावना की अपेक्षा से पूर्वबद्ध कर्मों के उदय की, उपशम की, क्षय की, क्षयोपशम की या कर्मनिरपेक्ष स्वाभाविक पर्याय या अवस्था की अपेक्षा किया गया है। चूँकि भाव एक तरह से पर्याय या अवस्था या परिणमन हैं। इसलिए पांच भावों में से कोई न कोई भाव अवश्य होंगे। पूर्वकाल में बद्ध कर्म, जो सत्ता में संचित पड़े थे, उनमें से या तो वह कतिपय कर्मों के उदय से प्राप्त आत्मा की अवस्था या पर्याय (औदयिक भाव) होती है, अथवा कर्मों के उपशम से प्राप्त (औपशमिक). पर्याय या अवस्था होती है; या कर्मों के क्षय से प्राप्त पर्याय (क्षायिकभाव) होती है, अथवा कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त अवस्था या पर्याय (क्षायोपशमिक भाव) होती है, अथवा वह पर्याय या अवस्था कर्मों के उदय आदि से बिलकुल सम्बद्ध नहीं होती, वह केवल किसी भी द्रव्य की स्वाभाविक पर्याय या
१. (अ) कर्म की उपशम आदि अवस्थाएँ ही औपशमिक आदि भाव हैं; यह अर्थ कर्म
के भावों में लागू पड़ता है। (ब) कर्म की उपशम आदि अवस्थाओं से होने वाले पर्याय औपशमिक आदि भाव
हैं । यह अर्थ जीव के भावों में घटित होता है।
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