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४६८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ पांचों भाव कैसे हो सकेंगे? इसका समाधान यह है कि जैनदर्शन का मन्तव्य हैजैसे- जड़पदार्थों (अजीवों) में न तो कूटस्थनित्यता है और न ही एकान्त क्षणिकताः अपितु परिणामि-नित्यता है, वैसे ही जैनदृष्टि से आत्मा न तो एकान्त कूटस्थनित्य है
और न ही एकान्त क्षणिक है, अपितु परिणामि-नित्य है। द्रव्यदृष्टि से आत्मा नित्य है, जबकि पर्यायदृष्टि से परिणमनशील (परिवर्तनशील) है। अर्थात्-आत्मा तीनों कालों में मूलरूप से कायम (नित्य) रहने पर भी द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि के निमित्त से उसका पर्याय-परिवर्तन होता रहता है। इस कारण वह परिणामि-नित्य मानी गई हैं।
पांच भावों की उत्पत्ति में साधनं 'धवला' में एक प्रश्न उठाया गया है कि पांचभाव किस (कारण) से होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है- इन पांच भावों में से कोई भाव कर्मों के उदय से, कोई कर्म के क्षय से, कोई क्षयोपशम से, कोई कर्म के उपशम से, कोई इन सबसे निरपेक्ष स्वभाव से होता है। जीवद्रव्य के भाव कर्मों के आश्रित उक्त पांचों कारणों से होते हैं, किन्तु पुद्गल द्रव्य के भाव कर्मों के उदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।
पांच भावों को जानने-पहचाने से लाभ . आशय यह है कि ये पांच भाव कर्मबन्ध से सीधे सम्बन्धित नहीं हैं, यानी ये . पांचों भाव कर्मबन्ध के कारणरूप नहीं हैं; अपितु एक दृष्टि से सोचा जाए तो ये जीव को बन्ध से लेकर उदय में आने तक का अवकाश देते हैं, कि जब तक कर्म बद्ध होकर सत्ता में पड़ा है, तब तक तुम उसमें रद्दोबदल कर सकते हो, अपने भावों (परिणामों या अध्यवसायों) द्वारा। यही कारण है कि इन पांच भावों का क्रम उदय से प्रारम्भ होता है। जैसे-समुद्र से उठने वाली तरंगें जब तक ऊपर न उठे, लहरें शान्त हों, जब तक नाविक सावधान होकर अपनी नौका को ठीक-ठाक कर सकता है, उसकी चैकिंग करके जहाँ कहीं भी छिद्र आदि जान पड़े या टूट-फूट मालूम हो, उसे दुरुस्त कर सकता है। इसी प्रकार जीवन-नैया का नाविक भी संसार समुद्र पार करते समय समुद्र से उदय भाव (परिणाम) की तरंगें न उठे, उससे पहले ही सावधान होकर अपनी जीवन-नौका को दुरुस्त, (आस्रवद्वार बन्द करके) निश्छिद्र,
१. तत्त्वार्थसूत्र (पंडित सुखलालजी) विवेचन, पृ. ४७ २. केण भावो? कम्माणमुदएण खयण-खओवसमेण, कम्माणमुवसमेण सभावदो वा। तत्थ
जीवदव्वस्स भावा उत्त-पंचकारणेहिंतो होति। पोग्गलदव्वभावा दुवा. कम्मोदएण विस्ससादो वा उव्वजंति। सेसाणं चउण्हं दव्वाणं भावा सहावदो उव्वज्जंति।
-धवला ५/१,७१/१८१
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