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________________ ४६६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (जीव) द्रव्य के अलावा अन्य द्रव्यों में नहीं होते। ये पांच भाव जीव के जीवत्व गुरु (जिस गुण के कारण जीव जीवित रहता है) की अपेक्षा से बताये गए हैं। जैसे समुद्र और उसकी तरंगों में जलाधारत्व (समुद्रत्व) गुण है, वैसे ही जीव में जीवत्व गुण असाधारण है। वही उसका स्वतत्व है। यद्यपि जीव में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि अनेक गुण हैं, किन्तु ये गुण तो जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है। मगर जीवत्व गुण जीव का ही असाधारण गुण है, जो अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। इसलिए यहाँ जीव के जीवत्व गुण की अपेक्षा उसके भावों का वर्णन किया गया है। जीवद्रव्य : औपशमिकादि पांचों भावों से युक्त इसलिए पंचसंग्रह में जीव का लक्षण किया गया है- 'जो औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक, इन पांच भावों से युक्त द्रव्य हो, वह जीव हैं।' तत्त्वार्थ राजवार्तिक के अनुसार- 'पर्याय की अपेक्षा से जीव औपशमिक आदि भाव-पर्यायरूप है। निश्चय से तो वह एकमात्र पारिणामिक भाव साधनरूप है।' यद्यपि जीव का स्वरूप उपयोगात्मक है, किन्तु यहाँ कर्मजन्य अवस्थाओं और मूल स्वभाव को बतलाने की मुख्य विवक्षावश औपशमिक आदि पांच भावों को जीव का स्वरूप बताया गया है। इसलिए सर्वार्थसिद्धि में भाव को औपशमिकादि लक्षण (रूप). बताया गया है। पांचभाव : आत्मा की पंचविध पर्यायें या अवस्थाएं इन्हीं पांच भावों के कारण आत्मा की पांच प्रकार की अवस्थाएँ या पर्यायें अथवा अन्त:करण की पंचविध परिणतियाँ (परिणाम) हैं। आत्मा के ये पर्याय एक ही अवस्था के नहीं होते। कुछ पर्याय किसी एक ही अवस्था के होते हैं, दूसरे कुछ पर्याय किसी दूसरी अवस्था के होते हैं। इसी कारण पर्यायों की ये विभिन्न अवस्थाएँ ही आत्मा के विभिन्न भाव हैं। पर्यायों की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही भाव कहलाती हैं। आत्मा के पर्याय अधिक से अधिक पांच भाव वाले हो सकते हैं। १. (क) तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि), पृ.७९,८० (ख) किं जीवा? उवसमाइएहिं भावेहिं संजुत्तं दव्वं। -पंचसंग्रह २/२, ३ पृ. ६ (ग) वही, भा. २, गा. २ का विवेचन, पृ.६ (घ) औपशमिकादिभावपर्यायो जीवः पर्यायादेशात्। पारिणामिक भावसाधनो निश्चयः। . -तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/७/३, ८ (ङ) भावः औपशमिकादि लक्षणः। -सर्वार्थसिद्धि १/८/२९/८ २. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी), पृ. ४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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