________________
औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४६५
में तथा कर्मग्रन्थ में इन पांच भावों के अतिरिक्त छठा सान्निपातिक' भाव भी बताया गया है।
आत्मा के स्वतत्व रूप पंचविध भाव जीवद्रव्य में, जीवद्रव्य से ही उठते हैं जिस प्रकार लहरों के विषय में पूछे जाने पर कि लहरें कहाँ से उत्पन्न होती हैं? उसका उत्तर होगा- लहरें समुद्र से उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार धवला में प्रश्न उठाया गया है कि यह (पंचविध) भाव कहाँ होता है ? कहाँ रहता है? कहाँ से उत्पन्न होता है? भाव का अधिकरण क्या है? उत्तर दिया गया है- भाव द्रव्य में ही रहता है या होता है, द्रव्य से ही उठता है। क्योंकि गुणी के बिना गुणों का रहना असम्भव है। जीवद्रव्य में ये पांचों भाव रहते हैं, ये पांचों भाव जीव से उत्पन्न होते
. पांचों भाव जीव के स्वतत्व : असाधारण गण : तात्पर्यार्थ .. 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है-वे पांचों जीवगुण जीव के भाव हैं, बहुत प्रकार के अर्थों में विस्तीर्ण (फैले हुए) हैं।' तत्त्वार्थसूत्र में इन पांच भावों को जीव के 'स्वतत्व' कहा गया है। राजवार्तिक एवं सर्वार्थसिद्धि के अनुसार- 'ये पंचविध भाव आत्मा के असाधारण (विशिष्ट) धर्म हैं, इसलिये ये स्वतत्व कहलाते हैं।' किन्तु इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि ये जीव (आत्मा) के स्वभाव-रूप हैं। यहाँ असाधारण या स्वतत्व का तात्पर्य केवल इतना ही है कि ये पांचों भाव आत्म
१. आर्षेसान्निपातिक भाव उक्तः।
-राजवा. ९/७/६७२ २. (क) औपशमिक-क्षायिकौ भावौ, मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ .. च।
-तत्त्वार्थ सूत्र अ. २/सू.१ (ख) छव्विधे भावे पण्णत्ते, तं.-ओदइए उवसमिते खतिते खओवसमिते पारिणामिते,
सनिवाइए।
· ·-अनुयोगद्वारसूत्र २३३, स्थानांग स्थान ६ सूत्र ५३७, भगवती सूत्र १४/७ ... (ग) उवसम-खय-मीसोदय-परिणामा सन्निवाइय ॥
-कर्मग्रन्थ भा. ४, गा. ६४ ३. (क) कत्थ भावो? दव्वम्हि चेव। गुणिव्वदिरेगेण गुणाणमसंभवा।
-धवला ५/१,७/१/१८८ — (ख) कथं दव्वस्स भावव्वपएसो? भवनं भावः भूतिर्वाभाव इति भावसद्दस्स विउप्पत्ति अवलंबणादो।
-धवला ५/१,७,११/१८४ ४. (क) ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा। -पंचास्तिकाय गा. ५६
(ख) जीवस्य स्वतत्त्वम्। स्वभावोऽसाधारणो धर्मः। (ग) सर्वार्थसिद्धि २/१ पृ. १४९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org