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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४४१ अन्तिम समय में संज्वलन माया का क्षय हो जाने से दसवें गुणस्थान में १०२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। तत्पश्चात् दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन-लोभ का अभाव हो जाता है। फलतः बारहवें गुणस्थान के द्विचरम-समयपर्यन्त १०१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। बारहवें गुणस्थान के द्वि-चरम समय में निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियों का क्षय हो जाता है, जिससे बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ९९ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। इन १४ कर्मप्रकृतियों का क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। अतएव तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम-समय-पर्यन्त ८५ प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है। तेरहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निनोक्त ७२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता का क्षय हो जाता है। वे ७२ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-देवद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी) खगति-द्विक (शुभविहायोगति, अशुभ विहायोगति), गन्धद्विक (सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध), स्पर्शाष्टक (कर्कश मृदु आदि ८ स्पर्श), वर्णपंचक (कृष्णनीलादि), रसपंचक (कटुकतिक्तादि पांच रस), पंचशरीर (औदारिकादि), बन्धन-पंचक (औदारिक वैक्रिय आदि पंच-शरीर बंधन), संघातन-पंचक (औदारिक वैक्रिय आदि शरीर-संघातन), निर्माण नामकर्म, संहनन-षट्क (वज्रऋषभनाराच आदि), अस्थिर-षट्क (अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति), संस्थान-षट्क-(समचतुरस्र, आदि ६ संठाण= संस्थान), अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास नामकर्म), अपर्याप्त नामकर्म, प्रत्येकत्रिक (प्रत्येक, स्थिर और शुभ नामकर्म), उपांग-त्रिक (औदारिक-वैक्रिय-आहारकअंगोपांग), सुस्वर नामकर्म, नीचगोत्र और सातावेदनीय या असातावेदनीय दोनों से कोई एक; इस प्रकार कुल मिलाकर ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में हो जाता है, जिससे चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में १३ .१. (क) थावर-तिरि-निरयायवदुग क्षीण तिगेग विगल, साहारं। . सोलखओ दुवीससयं, वियंसि विय-तिय-कसायंतो॥ २८ नपु-इत्थि-हासछग-पुंस-तुरिय-कोह-मय-माय-खओ। तइयाइसु चउदस-तेर-बार-छपण-चउ-तिहिय सय कमसो॥ २९॥ सुहुमि दुसय लोहंतो, खीणदु-चरिमेगसय दुन्निद्द-खओ। नव-नवइ चरम-समए, चउ-दसण-नाण-विग्धंतो॥३०॥ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. २८ से ३० तक, विवेचन (पं. सुखलाल जी), पृ.७९ से ८२ तक (ग) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. २८ से ३० तक, विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. १११ सं ११६ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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