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२६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जाकर होता है, मगर वहाँ से गिरकर जीव नीचे के गुणस्थान में लौटकर नहीं आता, अतः पुनः बन्ध न होने के कारण अवक्तव्य बन्ध को वहाँ अवकाश नहीं है। आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के बन्धस्थान तथा भूयस्कारादिबन्ध का कोष्ठक आठ कर्म ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु | नाम गोत्र अन्तराय
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उत्तरप्रकृति कितने बन्धस्थान?| १ कितनी प्रकृतियों | ५ । का बन्धस्थान
| २२, २१, १७| |२३, २५, २६, २८ । १३, ९, ५,४, १ | २९, ३०, ३१, १ | १ |
३, २,१
१
भूयस्कारबन्ध
००
अल्पतरबन्ध
अवस्थितबन्ध
अवक्तव्यबन्ध
बन्ध के विविध मोर्चों से सावधान . इन विविध कर्मों की मूल व उत्तरप्रकृतियों के कर्मों और गुणस्थानों की अपेक्षा से बन्धस्थानों (बन्ध के मोर्चों) को तथा विभिन्न भूयस्कारबन्धों, अल्पतरबन्धों, अवस्थितबन्धों और अवक्तव्यबन्धों को जानने-समझने से स्पष्ट अवबोध हो जाता है कि बन्धों की कितनी विविधता और विचित्रता है? यों देखा जाय तो मुख्य अध्यवसायों की दृष्टि से कर्मबन्ध के सात प्रकार हैं-राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ। किन्तु वाचक शब्दों की अपेक्षा से अध्यवसाय संख्यात होते हुए भी, अध्यवसाय स्थानों की अपेक्षा से असंख्यात हैं। तथा कर्मप्रदेशों की अपेक्षा से अथवा कर्मों के अविभाग (अनुभाग)-प्रतिच्छेदों की अपेक्षा से कर्मबन्ध अनन्त
- अतः आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक को देखना होगा कि किस कर्म का, कौन-सा बन्ध किस-किस मोर्चे से आकर आत्मा के साथ चिपट जाता है, आत्मा को विमूढ़ और विकृत कर देता है और आत्मा की ज्ञान-दर्शन, आनन्द और सामर्थ्य की शक्तियों को दबा देता है, कुण्ठित कर देता है? अतः अरुचिकर विषय होते हुए भी बन्धों की विचित्रताओं को देखकर मुमुक्षु साधक की आँखें खोलने के लिए इतना विस्तृतरूप से इसे प्रस्तुत करना आवश्यक था। १ राजवार्तिक १ तथा ८.
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