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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता - उदय - उदीरणा प्ररूपणा ४३९ उनकी सम्भवसत्ता ही है। इसलिए इस प्रकार के क्षपक जीवों की अपेक्षा चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थानों में सत्तायोग्य १४८ प्रकृतियों में से मनुष्यायु के सिवाय शेष तीन आयुओं को कम करने पर १४५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। किन्तु जिन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और दर्शन - मोह - त्रिक का क्षय करने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त है और इस भव के बाद दूसरा भव नहीं करना है, ऐसे जीव चतुर्थ गुणस्थान से ही क्षायिक सम्यक्त्वी होकर क्षपक श्रेणी करते हैं तो उन जीवों की अपेक्षा से अनन्तानुबन्धी कषायादि सप्तक का क्षय होने से तथा वर्तमान मनुष्यायु के सिवाय अन्य तीन आयुओं की सत्ता न होने से सत्तायोग्य १४८ प्रकृतियों में से उक्त दस प्रकृतियाँ कम करने से १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता चतुर्थ गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग पर्यन्त जाननी चाहिए। जो जीव वर्तमानकाल में ही क्षपकश्रेणीं कर सकते हैं और चरमशरीरी भी हैं, किन्तु अभी अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और दर्शन - मोहत्रिक का क्षय नहीं किया है, उन जीवों की अपेक्षा से १४५ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है। मगर जिन्होंने उक्त अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि ७ प्रकृतियों का क्षय कर दिया है, उन जीवों के १३८ प्रकृतियों की सत्ता होती है, और यह सत्ता नौवें गुणस्थान के प्रथमभाग तक पाई जाती है। किन्तु जो जीव वर्तमान में क्षपकश्रेणी नहीं कर सकते, यानी अचरमशरीरी हैं। उनमें से कुछ क्षायिक सम्यक्त्वी भी होते हैं, कुछ औपशमिक सम्यक्त्वी और कतिपय होते हैं - क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी । इनमें से क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी और औपशमिक सम्यक्त्वी अचरमशरीरी जीवों की अपेक्षा से १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है।. जो अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का विसंयोजन कर लेता है और जिसे नरकतिर्यञ्चायु का बन्ध न हो, वही उपशमश्रेणी प्रारम्भ कर सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार उपशमश्रेणी को प्रारम्भ करने वाले के आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान १. सम्यग्दृष्टि जीव ३ प्रकार के होते हैं-उपशम सम्यग्दृष्टि, क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि । जो सम्यक्त्व की बाधक मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करके सम्यग्दृष्टि वाले हैं, उन्हें उपशम सम्यग्दृष्टि तथा मोहनीय कर्म की क्षययोग्य प्रकृतियों का क्षय और शेष रही हुई प्रकृतियों का उपशम करने से जिन्हें सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उस प्रकार के सम्यग्दृष्टि जीव को क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । जिन्होंने सम्यक्त्व की बाधक मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का पूर्णतया क्षय करके सम्यक्त्व प्राप्त किया है, उन्हें क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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