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गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४०७ नामकर्म और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों का बन्ध कषायहेतुक ध्वनित किया है। - इस प्रकार बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों के यथासम्भव मूल बन्धहेतुओं की प्ररूपणा की गई है।
गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतुओं की सामान्य और विशेष प्ररूपणा उत्तर बन्धहेतुओं में मूल बन्धहेतु चतुष्टय के क्रमशः ५+१२+२५+५=५७ भेदों की गणना की गई है। इन ५७ उत्तरबन्धहेतुओं में से किस-किस गुणस्थान में कितने-कितने और कौन-कौन-से बन्धहेतु होते हैं ? यह बतलाया गया है। परन्तु इन बन्धहेतुओं को सामान्य और विशेष दो प्रकार से बताया गया है। किसी एक गुणस्थान में वर्तमान समग्र जीवों में युगपत् पाये जाने वाले बन्धहेत को 'सामान्य
और किसी एक जीवविशेष में पाये जाने वाले बन्धहेतु को 'विशेष' कहा गया है। गोम्मटसार और पंचसंग्रह में सामान्य और विशेष, दोनों प्रकार के बन्ध-हेतुओं का प्रतिपादन किया गया है।
- गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतुओं की संख्या पूर्वपृष्ठों में हम उत्तर-बन्ध हेतु के ५७ भेद गिना आए हैं। उनमें से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ५५ उत्तरबन्धहेतु हैं। आहारकद्विक (आहारक शरीर और
आहारकमिश्र काययोग) ये दोनों संयम-सापेक्ष हैं और प्रथम गुणस्थान में संयम का • अभाव है। इसलिये ५७ बन्धहेतुओं में आहारकद्विक नहीं होने से शेष ५५ बन्धहेतु होते हैं।
दूसरे सास्वादन गुणस्थान में ५० बन्धहेतु हैं; क्योंकि इस गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने से पांच मिथ्यात्वों को पूर्वोक्त ५५ भेदों में से कम करने से शेष पचास उत्तरबन्धहेतु दूसरे गुणस्थान में कहे हैं।२
तीसरे. मिश्रगुणस्थान में ४३. बन्धहेतु हैं, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय दूसरे गुणस्थान तक होने से तीसरे गुणस्थान में ये चार बन्धहेतु नहीं होते, अतः ये
१. उत्तरबन्धहेतु के सामान्य और विशेष इन दो भेदों की व्याख्या एवं विवरण के लिए
देखें-गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ७८९-७९०, पंचसंग्रह द्वार ४ गा० ५ तथा प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की गाथा-७७ में। पंचसंग्रह टीका में विशेष उत्तरबन्धहेतु का वर्णन
स्पष्टता से समझाया गया है। २. (क) पणपत्र पन्न तियच्छ हिअचत्त गुणचत्त छ चउ-दुग-वीसा।
सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न उ अजोगिंमि॥५४॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ . (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ५४ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १८२
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.. सोलस दस
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