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________________ ३८६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ विभिन्न पहलुओं से कर्मों के संयोग और वियोग की विभिन्न अवस्थाओं को लेकर जैसा विस्तृत एवं सूक्ष्म विचार किया गया है, वैसा अन्य दर्शनों एवं मतों में नहीं पाया जाता। फिर भी उक्त तीनों आस्तिक दर्शनों में उक्त विचारधारा के सम्बन्ध में बहुत कुछ समानता है। अर्थात्-संकेत, प्ररूपणशैली, पारिभाषिक शब्दों की भिन्नता होते हुए भी वस्तुतत्त्व के विषय में तीनों दर्शनों का अन्तर नगण्य है। ___ योगवाशिष्ठ में आत्मा के क्रमिक विकास की भूमिकाओं का विस्तार से निरूपण किया गया है। संक्षेप में, योगवाशिष्ठ में सात भूमिकाएँ अज्ञान की और सात भूमिकाएँ ज्ञान की मानी हैं। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं___ अज्ञान की सात भमिकाएँ-(१) बीज-जाग्रत, (२) जाग्रत, (३) महाजाग्रत, (४) जाग्रत स्वप्न, (५) स्वप्न, (६) स्वप्न जाग्रत और (७) सुषुप्तक। ___ज्ञान की सात भूमिकाएँ-(१) शुभेच्छा, (२) विचारणा, (३) तनुमानसा, (४) सत्वापत्ति, (५) असंसक्ति (६) पदार्थाभाविनी और (७) तूर्यगा। उक्त चौदह भूमिकाओं का संक्षिप्त स्वरूप निरूपण इस प्रकार है १. बीज-जाग्रत- इस भूमिका में अहंत्व और ममत्व बुद्धि की जागृति नहीं होती। किन्तु बीजरूप में जागृति की योग्यता होती है। यह भूमिका वनस्पति आदि क्षुद्रनिकायों में मानी गई है। - २. जाग्रत- इस भूमिका में अहंत्व-ममत्व-बुद्धि अल्पांश में जागृत होती है। यह भूमिका कीड़े-मकोड़े आदि तथा पशु-पक्षियों में पाई जाती है। ३. महाजाग्रत- इस भूमिका में अहंत्व-ममत्व बुद्धि विशेषरूप से पुष्ट होती है। यह भूमिका मानवगण तथा देवसमूह में पाई जाती है। ४. जाग्रत-स्वप्न- इस भूमिका में जागते हुए भी मनोराज्य अथवा भ्रम का समावेश होता है। जैसे- एक चन्द्र के बदले दो चन्द्र दिखना, सीप में चाँदी की भ्रान्ति होना। इन कारणों से यह भ्रमजनित भूमिका जाग्रत-स्वप्न कहलाती है। १. स्वप्न- निद्रावस्था में आए हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् भी जो भान होता है, वह स्वप्न-भूमिका है। ६. स्वप्न-जाग्रत- वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए स्वप्र का इसमें समावेश होता है। वह स्वप्न शरीर-पात हो जाने पर भी चलता रहता है। १. (क) योगवाशिष्ठ उत्पत्ति-प्रकरण सर्ग ११७, श्लोक २ से २४ (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि), पृ० १७३, १७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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