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________________ विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३८५ कारण और शुभ ध्यान मोक्ष का कारण होता है। आदि के तीन गुणस्थानों में आर्त्त और रौद्र ये दो ध्यान ही तरतमभाव से पाये जाते हैं। चौथे और पांचवें गुणस्थान में उक्त दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गुणस्थान में आर्त और धर्म, ये दो ध्यानं होते हैं। सातवें गणस्थान में सिर्फ धर्मध्यान होता है। आठवें से बारहवें गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में धर्म और शुक्ल, ये दो ध्यान होते हैं। तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में एकमात्र शुक्लध्यान होता है। ___ ध्यान के साथ कर्मबन्ध तथा कर्मक्षय का बहुत सम्बन्ध है, क्योंकि ध्यान एक प्रकार का परिणाम है। इसलिए कषाय भाव के तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र परिणामों से मोहनीय कर्म के तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्रभाव का बन्ध होता है, और उसका गुणस्थानक्रम के अनुसार पहले से दशवें गुणस्थान तक पाया जाना बताया गया है। ग्यारहवें, बारहवें में मोहकर्म क्रमशः उपशान्त और क्षीण हो जाता है। इसलिए धर्मशुक्लध्यान होता है और दो में तो वीतरागता के साथ एकमात्र शुक्लध्यान बताया गया है। ___ गुणस्थानों और ध्यानों के वर्णन से आगे बढ़ने की प्रेरणा गुणस्थानों में पाये जाने वाले चार ध्यानों के उक्त वर्णन से तथा क्रमशः गुणस्थानों में किये गए बहिरात्मभाव, अन्तरात्मभाव और परमात्मभाव के पूर्वोक्त वर्णन से प्रत्येक मनुष्य सामान्यतया यह जान सकता है कि मैं किस, गुणस्थान का अथवा कौन-सी आत्मा का या किस ध्यान का अधिकारी हूँ? ऐसा बोध, योग्य एवं आत्मार्थी अधिकारी की आत्मविकास की स्वाभाविक महत्वाकांक्षा को ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करने के लिए उत्तेजित, प्रोत्साहित एवं प्रेरित करता है, जैसा कि युगादि-तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने गृहस्थपक्षीय ९८ पुत्रों को प्रोत्साहित एवं प्रेरित किया था। · अन्यदर्शनों में आत्मिक विकासक्रम का निरूपण यद्यपि जैन, बौद्ध और वैदिक आदि प्राचीन आस्तिक दर्शनों में, किसी न किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार किया गया है, क्योंकि ये सभी आस्तिक देर्शन आत्मा के अस्तित्व, उसके पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, उसकी विकासशीलता एवं मुक्ति (मोक्ष) प्राप्ति की योग्यता को मानते हैं; तथापि जैनदर्शन में गुणस्थानों का १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं० सुखलाल ज़ी), पृ० ३१, ३२ (ख) आर्त्त-रौद्र-धर्म-शुक्लानि। परे मोक्षहेतुः। -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ९, सू० २९, ३० ' (ग) ध्यान के लिए विस्तृत वर्णन ध्यानशतक गा० ६३, आवश्यक हारि० टीका पृ० ६०२, तथा ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में पढ़िये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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