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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३७३ दोनों श्रेणियों में अन्तर दोनों श्रेणि वालों में अन्तर इतना ही होता है कि प्रथम श्रेणि वालों की अपेक्षा दूसरी श्रेणि वालों में आत्मशुद्धि तथा आत्मशक्ति विशिष्ट प्रकार की पाई जाती है। जैसे-किसी एक ही कक्षा में पढ़ने वाले दो विद्यार्थियों में भिन्नता पाई जाती है। एक विद्यार्थी तो सौ बार प्रयत्न करने पर भी अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आगे नहीं बढ़ पाता। मगर दूसरा विद्यार्थी अपनी योग्यता के बल से समस्त कठिनाइयों को पार कर उस कठिनतम परीक्षा को बेधड़क उत्तीर्ण कर लेता है। इन दोनों श्रेणियों में इस अन्तर का कारण है-उनकी आन्तरिक योग्यता की न्यूनाधिकता। वैसे ही नौवें, दसवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले उक्त दोनों श्रेणिवर्ती आत्माओं की आध्यात्मिक विशुद्धि भी न्यूनाधिक होती है। यही कारण है कि उपशम (प्रथम) श्रेणि वाले तो दसवें गुणस्थान को पाकर अन्त में ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर मोह से पराजित होकर वापस नीचे गिरते हैं। जबकि क्षपक (दूसरी) श्रेणि वाले दसवें गुणस्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण करके बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं। ___ ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्यमेव पुनरावृत्ति का है, जबकि बारहवाँ गुणस्थान अपुनरावृत्ति का है। आशय यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान वाला आत्मा एक बार उससे अवश्यमेव गिरता है, इसके विपरीत बारहवें गुणस्थान वाला साधक उससे कदापि नहीं गिरता, बल्कि ऊपर ही चढ़ता है। जैसे-किसी एक विषय की परीक्षा में फेल होने वाले विद्यार्थी परिश्रम तथा एकाग्रता से पुनः अभ्यास करके योग्यता बढ़ाकर पुनः वह परीक्षा देकर उत्तीर्ण हो जाते हैं, वैसे ही एक बार मोह से हार खाने वाले उपशमश्रेणिगत आत्मा भी अप्रमत्तभाव एवं आत्मबल की प्रबलता से पुनः पुरुषार्थ करके मोह को अवश्य क्षीण कर देते हैं। वस्तुतः दोनों श्रेणियों वाले आत्मार्थियों की तरतमभावापन्न आत्मिक विशुद्धि एक प्रकार से परमात्मभावरूप सर्वोच्च भूमिका पर आरूढ़ होने की मानो दो निसैनियाँ हैं। जिनमें से प्रथम को जैनकर्मविज्ञान में उपशम श्रेणि और दूसरी को क्षपकश्रेणि कहा जाता है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिराने वाली है, और दूसरी उत्तरोत्तर चढ़ाने वाली ही है। पहली श्रेणि से गिरने वाला आध्यात्मिक दृष्टि से अधःपतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक ही क्यों न चला जाए, परन्तु उसकी वह अध:पतित स्थिति कायम नहीं रहती। कभी न कभी प्रथम श्रेणि का स्वामी दुगुने बल और दुगुनी सावधानी से सुसज्ज होकर मोहशत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त करके मोह का सर्वथा उन्मूलन (क्षय) कर डालता है। व्यावहारिक जीवन में, भौतिक क्षेत्र में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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