________________
३७२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
आगे बढ़ता है और अन्त में, उन सब मोह दल के संस्कारों को सर्वथा निर्मूल ही कर डालता है।
इस प्रकार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले, दूसरे शब्दों में- अन्तरात्म भाव के विकास द्वारा परमात्मभावरूप सर्वोच्च भूमिका के निकट पहुँचने वाले आत्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं- (१) उपशम श्रेणि और (२) क्षपक श्रेणि ।
उपशम श्रेणि का स्वरूप और कार्य
एक श्रेणि ( उपशम श्रेणि) वाले तो ऐसे होते हैं, जो मोह को एक बार दबा तो देते हैं, उसे उदय में नहीं आने देते, किन्तु उसे निर्मूल नहीं कर पाते। अतः जिस प्रकार किसी बर्तन में भरी हुई भाप कभी-कभी प्रबल वेग से उस बर्तन को उड़ा देती है, अथवा नीचे गिरा देती है । अथवा जिस प्रकार राख के नीचे दबी हुई आग हवा के प्रबल झौंके से राख उड़ते ही प्रज्वलित हो उठती है और अपना कार्य करने लगती है। अथवा जल के तल में बैठा हुआ मैल थोड़ी-सी हलचल होते ही ऊपर उठ कर सारे पानी को गंदा कर देता है; उसी प्रकार पहले दबाया हुआ मोह आन्तरिक युद्ध में थके हुए उन प्रथम श्रेणि (उपशम श्रेणि) वाले साधकों को अपने प्रबल वेग से नीचे पटक देता है। एक बार पूर्णतया उपशान्त किया जाने पर भी मोह, जिस भूमिका से आत्मा को पराजित करके नीचे गिरा देता है, वही ग्यारहवाँ गुणस्थान है। मोह को क्रमश: दबाते-दबाते पूर्णतया दबाने तक में उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि वाली दो भूमिकाएँ ( दो गुणस्थान) अवश्य प्राप्त करनी पड़ती हैं। जो क्रमशः नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान कहलाता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान अधःपतन की भूमिका वाला है, क्योंकि उसे प्राप्त करने वाला साधकं आगे न बढ़कर, एक बार तो अवश्य नीचे गिरता है।
क्षपक श्रेणि का स्वरूप और कार्य
दूसरी (क्षपक) श्रेणि वाले साधक मोह को क्रमशः निर्मूल करते-करते अन्त में उसे सर्वथा निर्मूल कर ही डालते हैं। मोह का सर्वथा क्षय (उन्मूलन) करने की जो उच्च भूमिका है, वही बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान को पाने तक में, यानी मोह को सर्वथा निर्मूल करने से पहले बीच में नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान प्राप्त करना पड़ता है। वस्तुतः पहली उपशमश्रेणि वाले हों, चाहे दूसरी क्षपकश्रेणि वाले, दोनों को नौवाँ, दसवाँ गुणस्थान तो प्राप्त करना ही पड़ता है ।
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) से साभार, पृ. २४, २५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org