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३३० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
इस गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति इस गुणस्थान में मोहकर्म का उपशमन जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त काल के लिए होता है, उस काल के समाप्त होने पर अथवा उस काल के दौरान मृत्यु हो जाने पर कषाय और नोकषाय का उदय हो जाने से राख से दबी हुई अग्नि की तरह वह पुनः अपना प्रभाव दिखाता है। फलतः उक्त आत्मा का पतन होता है, वह पुनः मोहपाश में बंधता है और वह जिस क्रम से ऊपर चढ़ता है, उसी क्रम से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है। अगर इस गुणस्थान की कालावधि में मृत्यु हो जाती है तो वह मुनि अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है। परन्तु इस : गुणस्थानवी जीव यहाँ से गिरने पर सातवें, छठे, पांचवें, चौथे या कभी-कभी प्रथम गुणस्थान तक पहुँच जाता है। मगर इस प्रकार का आत्मा पुनः प्रयास करके प्रगति पथ पर बढ़ सकता है।
(१२) क्षीणमोहगुणस्थान : स्वरूप, कार्य और अधिकारी जिसने कषाय-नोकषाय रूप चारित्र-मोहनीय (मोह) का क्षय कर दिया है, उसके सम्पूर्ण मोह के क्षीण हो जाने का नाम क्षीणमोह गुणस्थान है। कषायों को नष्ट करके आगे बढ़ने वाला साधक दसवें गुणस्थान के अन्त में लोभ के अन्तिम अवशेष को भी सर्वथा नष्ट कर मोह से सर्वथा मुक्ति पा लेता है। अर्थात्-इस गुणस्थान (भूमिका) में दोनों प्रकार के मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। इसके साथ ही कषाय-नोकषाय भी पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त होता है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने वाले साधक के समस्त मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने से आत्मा में उत्पन्न होने वाली विशुद्धि की इस भूमिका को क्षीण कषाय गुणस्थान भी कहा जाता है। 'गोम्मटसार' में कहा गया है-मोहकर्म के नि:शेष क्षीण हो जाने से इस गुणस्थानवी जीव स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है, इस प्रकार के निर्ग्रन्थ साधु को वीतरागी पुरुषों ने 'क्षीणकषाय' कहा है। षट्खण्डागम में इस गुणस्थान का परिष्कृत नाम 'क्षीण कषाय वीतराग-छद्मस्थ' कहा है। जिन्होंने मोहनीय कर्म का तो सर्वथा क्षय कर दिया है, किन्तु शेष छद्म (ज्ञानावरण
१. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६७-१६८
(ख) गोम्मटसार (जी.) गा. ६१ (ग) द्रव्यसंग्रह टीका, गा. १३ (घ) जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज साहुस्स।
तइया दु-खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं॥'-समयसार, गा. ३३
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