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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३१७ . धर्मध्यान का विशेष आश्रय लेते हैं तो विशेष आत्मशुद्धि कर सकते हैं । अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान आदि लब्धियाँ इसी गुणस्थान में प्राप्त होती हैं। इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव मुख्यतया होता है, किन्तु सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायिक और औपशमिक भाव भी होता है। सप्तम गुणस्थान के दो प्रकार सप्तम गुणस्थान के दो प्रकार हैं- (१) स्वस्थान - अप्रमत्त और (२) सातिशय अप्रमत्त। सातवें से छठे गुणस्थान में और छठे से सातवें गुणस्थान में आना-जाना स्व-स्थान- अप्रमत्त संयत में होता है, जबकि जो श्रमणवर्ग मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षपण करने को उद्यत होते हैं, वे सातिशय- अप्रमत्त हैं । सातिशय अप्रमत्त अवस्था में इस गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणी प्रारम्भ होती हैं- उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी । प्रत्येक में चार-चार गुणस्थान होते हैं। जिसमें आत्मा मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए आरोहण करता है, वह उपशम श्रेणी है और जिसमें उसका क्षय करते हुए चढ़ता है, वह क्षपक श्रेणी है। मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षय और उपशम में निमित्त तीन प्रकार के परिणामों में से जो पहले अधःप्रवृत्तकरण रूप विशिष्ट परिणामों को करता है, उसे सातिशय अप्रमत्त कहते हैं । इन परिणामों के प्रकट होने से वह संयत मोहकर्म के उपशमन या क्षपण के लिए उत्साहित होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से आरोह और अवरोह की स्थिति में अप्रमत्तसंयत के संक्लेश की वृद्धि होने पर प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है । अर्थात् - जो अप्रमत्त है, वही प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है, अन्य नहीं । विशुद्धि की वृद्धि होने पर आरोहण की अपेक्षा से अपूर्वकरण गुणस्थान ही होता है। यदि मरण होता है तो चतुर्थ गुणस्थान होता है, उसका अन्य गुणस्थानों में गमन नहीं होता। मिथ्यादृष्टि एकदम सीधे सम्यक्त्वयुक्त होकर सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है। साथ ही मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत एवं प्रमत्तसंयत, ये सब सीधे अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। अवरोहण की अपेक्षा से अपूर्वकरण (पृष्ठ ३१६ का शेष) (ख) चौद गुणस्थान, पृ. १९९ (ग) जैन दर्शन (न्या. न्या. न्यायविजय जी), पृ. ११२ (घ) गोम्मटसार गा. ४५ ( जीवकाण्ड), (ङ) धवला १/१/१ सू. १५, पृ. १७८ (च) आत्मतत्व विचार, पृ. ४७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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