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________________ ३१६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कारण इसे अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान कहा गया है। इस भूमिका से लेकर अगली तमाम भूमिकाओं में साधुवर्ग अपने स्वरूप के प्रति अप्रमत्त रहते हैं । १ छठे से सातवें और सातवें से छठे गुणस्थान में उतार-चढ़ाव : क्यों और कैसे? यद्यपि सप्तम गुणस्थान में व्रतों में अतिचारादि न होने से जरा-सा भी प्रमाद नहीं होना चाहिए; परन्तु इस गुणस्थान में अवस्थित आत्मा किंचित् मात्र भी प्रमाद करता है तो छठे गुणस्थान में आ जाता है; क्योंकि छठा गुणस्थान प्रमादयुक्त होने से उसमें व्रतों में अतिचारादि सम्भव हैं। इस प्रकार कभी सातवें से छठे में और कभी छठे से सातवें गुणस्थान में उतार-चढ़ाव होता रहता है। इस प्रकार ये दोनों गुणस्थान गतिसूचक यंत्र की सुई की भांति अस्थिर हैं। छठे और सातवें गुणस्थान का परिवर्तन पुनः-पुनः होता रहता है। जब प्रमाद का उदय आता है, तब सप्तम गुणस्थानवर्ती साधक छठे गुणस्थान में चला जाता है, और जब साधक में स्वरूपरमणता की जागृति या आत्मतल्लीनता होती है, तब वह छठे से सातवें गुणस्थान में चढ़ता है। संयमी साधुवर्ग भी बहुत बार प्रमत्त एवं अप्रमत्त अवस्था में झूलता रहता है। सामान्यतया यह परिवर्तन दीर्घकाल तक चलता रहता है। जब कर्त्तव्य में उत्साह, सावधानी और स्वरूप-जागृति कायम बनी रहती है, तब अप्रमत्त अवस्था होती है, परन्तु इस अवस्था में विचलितता या शिथिलता आती है तो थोड़े समय में पुनः प्रमत्त-अवस्था आ जाती है। पूर्वगुणस्थानापेक्षया सप्तम गुणस्थान में अधिकाधिक विशुद्धि यद्यपि प्रमाद सेवन से सप्तम गुणस्थानवर्ती आत्मा गुणों की शुद्धि से गिरता है; तथापि प्रमत्त-संयत नामक छठे गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। इस गुणस्थान में भी असंख्य लोकाकाश प्रदेशों की संख्या के जितने विशुद्धि - स्थानक होते हैं। इस गुणस्थान में जघन्य से जघन्य स्थान में रहा हुआ मुनि भी अप्रमत्तसंयत कहलाता है। तथा विशिष्ट तप, संयम, धर्मध्यान आदि के योग से ज्यों-ज्यों कर्मों की निर्जरा होती जाती है, त्यों-त्यों आत्मा उत्तरोत्तर ऊपरऊपर के विशुद्धि स्थान पर चढ़ता जाता है। छठे और सातवें गुणस्थान के संयतवर्ग १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी, पं. सुखलाल जी) से भावांश ग्रहण | (ख) चौद गुणस्थान, पृ. १२९ २. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only (शेष पृष्ठ ३१७ पर) www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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